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भाग - 4

रावी अंदर जाने ही वाली थी कि बिट्टू उसके सामने आकर खड़ा हो गया।

"माफ़ कर दो, दीदी" वो अपने दोनों कान पकड़कर अपने घुटनों के बल उसके आगे बैठ गया।

"उठ जाओ। क्या कर रहे हो?" रावी पीछे हटते हुए बोली।

"सॉरी दीदी, आज सुबह जो कुछ भी हुआ वो नहीं होना चाहिए था। मैं माफी चाहता हूं आपसे, प्लीज आप मुझे माफ कर दीजिए। मैं मानता हूं मैं कभी-कभी बहुत बदतमीजी करता हूं लेकिन आप तो जानती हैं कि मैं दिल का बुरा नहीं हूं। मैं कभी भी आपका बुरा नहीं चाहता।" बिट्टू बस गिड़गिड़ाए जा रहा था।

रावी थोड़ी देर चुप रही फिर उसे देखते हुए बोली -

"तुम्हारा तो हमेशा का है। अब मुझे आदत हो गई है, भाई।

तुम हमेशा बदतमीजी करते हो और फिर समझाने बुझाने पर मुझसे माफी मांगने आ जाते हो लेकिन कोई बात नहीं, तुम चिंता मत करो....खर्चा देना बंद नहीं करूंगी मैं। जब तक हड्डियां चल रही है चलाऊंगी इन्हे"

" नहीं दीदी, ऐसी बात नहीं है। आप बस एक बार पढ़ाई खत्म हो जाने दीजिए। आप देखिएगा सारा घर का बोझ मैं उठा लूंगा।आपने जो सौतेला होकर भी हम सबके लिए इतना किया है, आप चिंता मत करिए बस कुछ ही साल और.... फिर देखिएगा"

वो रावी को देखते हुए बोला लेकिन रावी के चेहरे पर कोई भाव ना था।

"आपने मुझे माफ कर दिया ना?" बिट्टू ने धीमी आवाज़ में पूछा।

"हाँ। मैं इसके अलावा और कर भी क्या सकती हूं?" एक हलकी सी मुस्कुराहट के साथ बोलकर रावी अपने कमरे की तरफ बढ़ गयी।

बाकी घर की तरह ही उसके कमरे की हालत भी बिल्कुल खस्ता ही थी। कमरे में जहां-तहां सामान ठूस ठूस कर भरा हुआ था, कमरे में बहुत तंगी थी। लेकिन रावी का सारा ध्यान अपनी नयी उम्मीद पर था जो उसे गरिमा ने दिलायी थी। पता नहीं वह आगे आने वाली जंग के लिए तैयार थी या नहीं लेकिन एक हल्की सी उम्मीद उसे दिखाई थी एक नई नौकरी की और अब वो उसे उम्मीद को खोना नहीं चाहती थी चाहे कुछ भी हो।

बिट्टू अपनी मां के पास कमरे में गया।

"आपका काम कर दिया ना मैंने। बिल्कुल जैसा आपने बोला वही किया। अब दीजिए जरा दो हज़ार रूपये" अपनी माँ के आगे हाथ लहराता हुआ बिट्टू बोला।

"दो हज़ार?!!!" - उसकी मां लगभग चीख कर बोलती है - "दो हज़ार किस बात के?"

"किस बात के? आपने बोला ना नाक रगड़ो, माफी मांगो वरना वो पैसे नहीं देगी तो मैंने नाक रगड़ी और माफी भी मांगी। अब मुझे नहीं पता जहां से मर्ज़ी मुझे पैसे दीजिए और आप यह मत बोलना कि आपके पास पैसे नहीं है। मुझे पता है आपने छुपा कर रखे हैं और रावी जो भी घर में देती है, आप वहां से टांका मारती हैं! कितने पैसे इकट्ठे किए हैं आपने"

"अच्छा? मैंने पैसे इकट्ठे किए हैं? अपने लिए किये है क्या? तुम दोनों के लिए ही करती हूं मैं। कल को उसने शादी कर ली तो क्या होगा हमारा? सोच है तुमने कुछ? ये सिर्फ तब तक रहेगी यहाँ जब तक इसका बाप है यहाँ। यहां से बाहर गई तो अपनी कमाई भी अपने साथ लेकर जाएगी"

इसी बीच नैना तपाक से बोल पड़ी,

"ओ मां! बस भी करो! अब कहाँ करेगी वो शादी। इतनी उम्र हो गई है उसकी। इतने वक़्त में आज तक कोई लड़का नहीं मिला उसको, अब कहां से मिलेगा। अब कोई लड़का उसकी नजर उठा कर भी नहीं देख सकता"

"मुझे बस पैसे दे दो। अपनी बातें आप लोग बाद में करते रहियेगा। पैसे दो जल्दी से नहीं तो अभी रावी को जाकर सब बता दूंगा कि आपने यहां पर पैसे छुपा कर रखे होते हैं, आप बस पापा का नाम लेकर उससे सारे पैसे ऐंठ लेती हैं"

" हे भगवान! रुको देती हूं तुम्हें पैसे। तुम तो पीछे ही पड़ गए हो"

बोलकर लीला ने कमरे के कोने में पड़े संदूक को चाबी से खोलते हुए उसमें से कुछ पैसे निकाल लिए और उसे पैसे दे दिए। वो पैसों पर ऐसे झपटता है जैसे भूखा शेर किसी निरही जानवर पर शिकार के लिए झपट रहा हो।

पैसे लेकर बिट्टू नौ दो ग्यारह हो चुका था और उसकी मां चिल्लाती ही रही।

कुछ ही देर मे रावी अपना एक छोटा सा बैग लेकर घर से निकल गयी। अपने कमरे में बैठी माँ बेटी को कोई होश ही नहीं रहता था कि कोई घर से जा रहा है या कोई आ रहा है। हाँ दोनों पंचायत तभी लगाती थीं जब रावी को आने में देर होती, कब जा रहीं है, क्या कर रही है, कैसे कर रही है, उन्हें इससे कभी कोई मतलब नहीं रहा।

रावी अपना सामान लेकर गरिमा के पास आ गयी जो उनकी गली के बाहर ही खड़ी उसका इंतजार कर रही थी। वो उसे अपने साथ लेकर अपने रेस्टोरेंट की तरफ निकल गयी।

वो रेस्टोरेंट शहर के बाहर था। बड़े अक्षरों में सनराइजर्स लिखा हुआ था उस रेस्टोरेंट के बाहर।

"दीदी, ये नया खुला है। हमारे रेस्टोरेंट की ही दूसरी ब्रांच है। एक महीना ही हुआ इसकी ओपनिंग हुए" उसके आगे आगे चलती गरिमा बता रही थी।

उस रेस्टोरेंट को बाहर से देखने पर ही रावी को अंदाज़ा हो गया था कि वहां पर उसको तो वेटरेस की जॉब भी नहीं मिलने वाली, शेफ तो बहुत दूर की बात है!

रेस्टोरेंट ज़्यादा बड़ा नहीं था लेकिन उसकी बनावट,उसका अर्चिटेक्चर बहुत आधुनिक था!

कहाँ उसका वो छोटा सा ढाबा और कहाँ ये रेस्टोरेंट!

"यहाँ भी मुंह पर दरवाज़ा बंद कर देंगे। चल बेटा रावी एडवांस में बेइज़्ज़ती मुबारक हो!" रावी खुद में ही बुदबूदा रही थी।

रावी को कुछ देर इंतज़ार करवाने के बाद मैनेजर ने ऑफिस में बुलाया वो पोर्शन रेस्टोरेंट के सीटिंग एरिया से अलग था।

रावी एक लम्बी सांस भरकर दरवाज़ा खटखटाकर अंदर चली गयी। अंदर गरिमा पहले से ही खड़ी थी और उसका लटका हुआ मुंह देखकर रावी को समझ आ गया था कि जो हमेशा से होता है वही हुआ है।

सामने एक 30 वर्ष का आदमी बैठा हुआ था। सर पर बाल नहीं थे। बस चेहरे पर बढ़ी हुई दाढ़ी थी। ऐसा लग रहा था उसने खुद ऐसा स्टाइल बना रखा होगा।

"मैम आपने ढाबे में काम किया है और ये ढाबा नहीं है। यहाँ हम बिना किसी क्यूलनरी कोर्स या डिग्री के किसी ढाबे के रसोईए को शेफ नहीं रख सकते।"

वो आदमी सीधे सपाट लहजे में बोला था।

रावी बस हाँ में अपना सर हिला रही थी। उसे पता था यही होने वाला था।

"बट निहाल सर, आप एक बार रावी दीदी के हाथ का खाना चख कर देखना, आप सब भूल जाओगे। सर एक बार। एक टेस्ट ही ले लो। बस एक डेमो"

गरिमा ने बहुत रिक्वेस्ट की लेकिन निहाल बस मुस्कुराता हुआ ना में सर हिलाता रहा और बोला

"रूल्स आर रूल्स, गरिमा! आई होप यू अंडरस्टैंड। ऍम सॉरी"

गरिमा ने रावी को देखा जो चुपचाप वहां खड़ी उन दोनों को देख रही थी।

"सर वेटरेस की वेकेन्सी होगी कोई?" गरिमा ने मुंह लटकाये हुए पूछा। निहाल ने पहले कुछ सोचा और फिर ना में सर हिला दिया।

"थैंक यू सर, आपके वक़्त के लिए बहुत बहुत धन्यवाद" बोलकर रावी मुड़कर जाने वाली थी कि गरिमा ने उसे रोक लिया।

"दीदी आप यहाँ से जाना नहीं। आप बस कुछ देर बाहर बैठिये" गरिमा ने उसे बोला तो जवाब में रावी ने हाँ में सर हिला दिया।

रावी के बाहर जाते ही गरिमा अपनी कमर पर दोनों हाथ रखे अपने सामने खड़े निहाल को घूरने लगी।

"बेबी!" निहाल उसे गुस्से में देखकर, मनाने के अंदाज़ में बोला।

"क्या बेबी, निहाल? एक रिक्वेस्ट की थी मैंने बस। उनको इतने भरोसे के साथ मैं यहाँ लाई। सोचा कि मैनेजर मेरा बॉयफ्रेंड है तो आराम से उन्हें जॉब मिल जायेगी लेकिन तुम? यार शेफ का असिस्टेंट ही रख लो। मैं कौन सा हेड शेफ के लिए बोल रहीं हूँ जो डिग्री के बिना नहीं हो सकता। इतनी बड़ी टीम है यार शेफ़्स की, एक हेल्पर के तौर पर ही रख लो!"

"ऐसा नहीं हो सकता, गरिमा। ये सब मेरे हाथ में नहीं है। जो रूल्स हैं वो रूल्स हैं। अब तुम नाराज़ मत हो यार"

"रावी दीदी कभी किसी के आगे हाथ नहीं फैलाती। उन्होंने कभी किसी से नौकरी की बात करने के लिए नहीं कहा। मेरे पास कितनी उम्मीद से आयी थीं। यार उन्हें बहुत ज़रूरत है जॉब की" गरिमा मायूस होकर बोली।

"क्लीनिंग ड्यूटीज कर लेंगी?" निहाल ने हिचकिचाते हुए पूछा।

"यार साफ सफाई क्यूँ करेंगी? उनके पास डिग्री नहीं है लेकिन दिमाग से पैदल नहीं हैं वो। बहुत इंटेलीजेंट हैं। उन्होंने तो बारहवीं में अपने जिले में टॉप......." गरिमा की बात को पूरी होने से पहले ही निहाल ने काट दिया।

"डिग्री तो नहीं है उनके पास? उसके बिना दिमाग़ घुटनों में हो या सर में.... कोई नहीं देखता। दुनिया ऐसी ही है" निहाल गंभीर अंदाज़ में बोला।

गरिमा उसकी बात सुनकर चुप हों गयी थी।

*****

गरिमा को दरवाज़े से बाहर आते देखकर रावी जल्दी से सोफे से खड़ी हो गयी।

"मैं चलती हूँ अब। तुम्हारा बहुत धन्यवाद गरिमा जो तुमने मेरे लिए इतना भी किया। चिंता मत करना मुझे कोई और नौकरी मिल ही जायेगी" रावी मुस्कुराते हुए गरिमा का हाथ पकड़ते हुए बोली।

"वो दीदी उनके पास एक जॉब है। सैलरी 20-25 तक दे देंगे" गरिमा हिचकिचाहट के साथ बोल रही थी।

"हज़ार? 20-25 हज़ार?!!"

ढाबे पर 8 हज़ार महीना कमाने वाली रावी के लिए ये बहुत ज़्यादा थे! आज तक 10 हज़ार से ज़्यादा सैलरी उसे कभी मिली ही नहीं।

रावी के दिमाग में बहुत सी चीज़ें घूमने लगी थीं।

अब वो अपने पापा जी का चेक अप एक अच्छी जगह करवा पाएगी, पीछे कमरे की छत टूटी है... उसकी भी मरम्मत हो जायेगी, माँ और भाई बहन भी शायद उससे थोड़ा इज़्ज़त से पेश आएं, और थोड़े पैसे जोड़ कर वो अपने कमरे की टूटी खिड़की भी ठीक करवाएगी, उसका बेड का कोना भी तो टूटा है।

वो सोच ही रही थी कि गरिमा की आवाज़ उसे उसके छोटे छोटे हवाई महलों से बाहर ले आई।

"क्लीनर की जगह खाली है बस! आप कर लोगे?" सुनकर रावी के चेहरे पर चुप्पी जड़ गयी थी।

थोड़ी देर बाद रावी और गरिमा निहाल के सामने थे।

"आप कल से ज्वाइन कर सकती हैं। कल आते ही आपको सारा काम समझा दिया जाएगा"

निहाल अपने केबिन में खड़ा रावी को समझा रहा था। रावी भी जवाब में सिर हिलाये जा रही थी।

"अगर आपका काम अच्छा हुआ तो मैं आपको क्लीनिंग डिपार्टमेंट के असिस्टेंट मैनेजर की पोस्ट के लिए रेकमेंड ज़रूर करूंगा" निहाल जब आश्वासन के साथ ये बोला तो रावी को उम्मीद मिली।

"थैंक यू" वो धीरे से बोली।

"आपको अपना लॉकर भी मिल जाएगा यहाँ। यूनिफार्म का देख लेंगे हम। आप पैंट शर्ट तो पहन लेंगी ना?"- रावी जल्दी जल्दी हाँ में सर हिलाती रही - "तो बस फिर ठीक है। यहीं यूनिफार्म पहननी होगी आपको। सैलरी टाइम से मिल जाया करेगी। बस काम अच्छे से करना"

रावी ये जॉब करना नहीं चाहती थी लेकिन पैसे अच्छे दे रहे थे और काम अच्छा करेगी तो शायद प्रमोशन भी मिल जाए। काउंटर्स की साफ सफाई ही तो करनी थी।

बाहर आते हुए उसके चेहरे से हवा टकरा रही थी। एक लम्बी सांस भरकर उसने ऊपर आसमान की ओर देखा।

अब मन की बेचैनी थोड़ी कम थी।

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I’m Suryaja, an Indian writer and a story teller who believes that words are more than ink on paper—they are echoes of dreams, fragments of the past, and shadows of what could be.