03

भाग - 3

एक साधारण लेकिन सुव्यवस्थित घर में एक औरत रसोई से एक प्लेट में खाना लेकर आई। बाहर छब्बीस साल की एक खूबसूरत सी लड़की साधारण से सोफे पर बैठकर नीचे झुककर अपनी सैंडल पहन रही थी।

"नहीं मम्मी, अभी मुझे खाना नहीं खाना है। मैं ऑलरेडी बहुत लेट हो चुकी हूं"

वह लड़की उस औरत को देखते ही बोली।

"देखो बस! अब कोई मनमर्जी नहीं चलेगी तुम्हारी। तुम सुबह भी खाना खाकर नहीं जाती। इतनी मेहनत करती हो बेटा खाना नहीं खाओगी तो बीमार पड़ जाओगी" वो औरत सोफे पर बैठते हुए बोली।

"मम्मी, प्लीज यार!" वो लड़की इर्रिटेट हो रही थी।

"नहीं बस, मैं कुछ और नहीं सुनना चाहती। तुम चुपचाप खाना खाओ"

दोनों बातचीत कर ही रही थीं कि उनके घर के दरवाज़ा पर दस्तक हुई।

"इतनी सुबह-सुबह कौन होगा...तुम खाना खाओ" उसे लगभग धमकाती हुई वो औरत दरवाजे की तरफ उसे खोलने के लिए बढ़ गयी।

दरवाजा खुला तो बाहर रावी खड़ी थी।

"अरे बेटा, तुम यहां? इस वक्त, वो भी इतनी सुबह-सुबह?" वो औरत सुबह सुबह रावी को अपने दरवाज़े के बाहर खड़ा देखकर हैरान थीं।

"नमस्ते आंटी" रावी हाथ जोड़कर बोली।

"नमस्ते" उस औरत ने भी बेमन से मुस्कुराते हुए जवाब दिया।

"आंटी, गरिमा घर पर है?" रावी पूछने में थोड़ी झिझक रही थी।

"नहीं, वो तो...." उस औरत की बात पूरी भी नहीं हो पाई कि अंदर से गरिमा आवाज आई - "कौन है मम्मी?" जिसे सुनकर वो औरत झेपती हुई रावी को देखने लगी। रावी के चेहरे पर अभी भी मुस्कुराहट बनी हुई थी। मानो कुछ हुआ ही ना हो। उसे इन सब की आदत थी। लोग अक्सर उससे कन्नी काट लिया करते थे। बुरा लगता था उसे लेकिन हालात और ज़रूरत का क्या करे इंसान!

"अरे बेटा, रावी आई है" वो औरत अपने लहज़े में मिठास घोलते हुए बोली।

"रावी दीदी आयी है!" गरिमा जल्दी से दरवाजे की तरफ भागती हुई गयी और रावी को सामने देखकर बहुत खुश हुई।

" आप कैसी हैं? आप अंदर आओ ना, दीदी" गरिमा आगे बढ़कर उसका हाथ पकड़ते हुए घर के अंदर ले गयी। दोनों सोफे पर बैठ गयीं।

"आज आप इतने दिनों बाद यहां? सब ठीक है ना रावी दीदी? मैं पानी लाऊं आपके लिए? आप कुछ लेंगी?" बैठते ही गरिमा सवाल दागते चली गयी।

"नहीं, नहीं मैं कुछ भी नहीं लूंगी" बोलकर रावी चुप हो गई थी। उसे समझ नहीं आ रहा था आगे क्या बोले।

"मम्मी, प्लीज् आप ये खाना पैक कर दो। मैं दोपहर को वही खा लूंगी और मुझे बहुत प्यास भी लगी है, पानी पिला दो प्लीज" गरिमा अचानक अपनी मां को देखते हुए बोली। उसकी माँ ने उसे आंखें तो दिखाई लेकिन रावी के सामने कुछ बोल नहीं पाई।

"अब बताइए क्या प्रॉब्लम है? मुझे पता था मम्मी के सामने आप नहीं बोलोगे" अपनी मां के जाते ही गरिमा ने रावी से पूछा।

"मेरी जॉब चली गई" रावी हल्के से बोली। उसके चेहरे पर अब चिंता की लकीरें खिंच गयी थीं।

"ओह! लेकिन वो तो अच्छी चल रही थी ना?" गरिमा अपने लहजे में नरमी लिए बोली।

"हां अच्छी चल रही थी लेकिन अंकल जी की तबीयत खराब हो गई तो इसलिए अब उनको ढाबा बंद करना पड़ रहा है"

"तो अब?"

"तुम अभी भी उसी रेस्टोरेंट में जॉब करती हो?"

"हाँ, वही। सनराइजर्स रेस्टोरेंट में। अब तो डेस्क जॉब मिल गयी है। बिलिंग सेक्शन में"

रावी थोड़ा हिचकिचाई लेकिन जिस काम के लिए आयी थी करना तो था। उसने कहा,

"गरिमा, एक महीना पहले तुम मेरे पास आयी थी ना....तुम्हारे रेस्टोरेंट में एक जगह खाली थी। क्या अभी भी वो जॉब मुझे मिल सकती है?" रावी की आँखों में उम्मीद साफ झलक रही थी।

"आप मेरे रेस्टोरेंट में जॉब करोगे? वेट्रेस की जॉब है दीदी और आपको पता है ना वहां स्कर्ट पहननी पड़ती है यूनिफॉर्म के लिए इसीलिए तो आपने पिछली बार मना किया था।" गरिमा हैरान थी।

"हां लेकिन अब मजबूरी है अब कोई ऑप्शन नहीं है मेरे पास। अगर अभी भी उस जॉब की ओपनिंग है तो प्लीज मेरे लिए बात कर दो। सिफारिश नहीं बोल रही। बस पूछ दो कि क्या अभी भी जगह खाली है?"

गरिमा ने कुछ देर सोचा।

"वेट्रेस की तो नहीं होगी शायद लेकिन हां, शेफ की वेकेन्सी है। उनको एक शेफ चाहिए। आप तो खाना कितना अच्छा बनाते हो। आपने तो कितना कुछ सीखा भी हुआ है। इतनी अलग-अलग टाइप की डिशेस आती है आपको तो मैं उसके लिए बात करूंगी"

सुनकर रावी थोड़ी देर चुप रही। फिर बोलीं,

"लेकिन उसके लिए तो क्यूलनेरी आर्ट्स की डिग्री चाहिए होगी ना?"

"खाना बनाने वाली डिग्री?" गरिमा ने सवाल किया।

"हाँ वही कह लो। मेरे पास तो क्यूलनेरी की कोई डिग्री नहीं है तो क्या वह मुझे रखेंगे? मैंने बहुत कोशिश की थी लेकिन डिग्री के बिना नहीं रखते रेस्टोरेंट में शेफ इसीलिए तो ढाबे में नौकरी करती थी।"

"हाँ उसका प्रॉब्लम हो सकता है लेकिन बात करने में क्या नुक्सान है"

गरिमा की माँ रसोई से बाहर आ गयी। वो वैसे भी वहां से सब कान लगा कर सुन रही थीं। सामने आकर बोलीं,

"अच्छा! रावी बेटा तुम्हें नौकरी चाहिए? लेकिन बेटा बुरा मत मानना एक बात बताओ तुम्हारी स्कूल में अच्छी खासी नौकरी चल तो रही थी....छोटा स्कूल था लेकिन गुजारा तो हो ही जाता था तो फिर तुमने वह नौकरी क्यों छोड़ दी? इतनी सारी नौकरियां बदलती रहती हो। तुम कहीं एक जगह टिक कर भी बैठा करो। अब देखो ना हमारी गरिमा को....कब से एक ही जगह पर टिक कर बैठी है, अभी तो देखो उसकी सैलरी भी बढ़ गई और प्रमोशन भी हो गया है"

वो बहुत घमंड से रावी के सामने बोल रही थीं। रावी चुपचाप मुस्कुराती ही रही। अब वो किसी को क्या बताये और किस किस को समझाये कि किस्मत हमेशा हर मेहनत करने वाले का साथ नहीं देती। कभी कभी तो जो योग्य होता है वो भी ज़िन्दगी की रेस में पीछे रह जाता है लेकिन इसका मतलब क्या ये है कि वो योग्य नहीं?

गरिमा ने अपनी मां को घूर कर देखा तो उसकी माँ आगे बोलते बोलते रुक गयी। फिर वो रावी को देखकर बोली- "दीदी आप ना बस अपने ज़रूरी डाक्यूमेंट्स जो भी आपके पास हो, वो बैग में रखिये और आज चलिए मेरे साथ रेस्टोरेंट में। वो लोग शहर से बाहर अपना एक और नया रेस्टोरेंट खोल रहे हैं। वहां पर जॉब ओपनिंग है तो क्या पता आपको मिल जाए। ठीक है आपके पास डिग्री नहीं है लेकिन बात करने में क्या जा रहा है"

गरिमा मुस्कुराते हुए रावी के कंधे पर हाथ रखती हुई बोली।

रावी के चेहरे पर एक स्माइल आ गई थी। कुछ हौसला मिला था उसे। उसे पता था यहाँ आकर कोई ना कोई रास्ता ज़रूर मिलेगा। इकलौती गरिमा ही तो थी जो अपनी हैसियत के हिसाब से उसे नई जॉब ओपनिंग्स के बारे में बताती रहती थी। कहने को तो गरिमा भी कोई बडी जॉब तो नहीं करती थी, उसकी भी बस वही जॉब थी जिससे लोअर मिडिल क्लास के लोगों के सपने और ज़रूरतें पूरी हो जाती थीं।

रावी, गरिमा को थैंक यू बोलकर वहां से जल्दी जल्दी घर की ओर चली गयी।

उसके जाते ही गरिमा अपनी माँ पर तकरीबन बरस पड़ी,

"यह क्या हरकत थी मम्मी? आप किस तरह से रावी दीदी के सामने बात कर रही थी? आपको पता तो है कि उनके पास कोई डिग्री नहीं। अंकल की खराब तबियत की वजह से उनकी ग्रेजुएशन बीच में ही रह गयी। जब यहां पर नई-नई आई थी तो स्कूल में ही जॉब करती थी लेकिन इंस्पेक्शन वालों ने डिग्री ना होने की वजह से उनको स्कूल से बाहर निकाल दिया। आपको पता तो है सब फिर क्यूँ उन्हें नीचा दिखा रहीं थीं आप?"

गरिमा बहुत गुस्से में थी। वो बुरी तरह चिढ़ी हुई थी। बोली,

"अपने जिले में बारहवीं में टॉप किया था रावी दीदी ने! आज भी उनको इतनी नॉलेज है। वो तो किस्मत ने साथ नहीं दिया बेचारी का इसलिए आप जैसे लोगों को मौका मिल जाता है उन्हें नीचा दिखाने का। बस एक डिग्री की वजह से कहीं भी उनकी योग्यता के हिसाब से अच्छी जॉब नहीं मिल पाती उनको, वरना आज मोहल्ले में हम सबसे आगे होती वो"

उसकी माँ बोली,

"घर बैठे भी तो ग्रेजुएशन होती है, क्यूँ नहीं करती? तू बहुत भोली है रे गरिमा। इसे बस पैसे की लत लगी हुई है। कल नौकरी गयी आज ही दूसरी ढूंढ़ने निकल पड़ी। ये लड़कियां भी ना आजकल घर नहीं बैठ सकती।"

गरिमा बोली

"आपको पता नहीं है क्या उनके परिवार का। वो लोग कुछ उनके पास छोड़े तो वो खुद पर खर्च करेंगी ना!"

उसकी माँ अब ज़हर उगल रही थी,

"रहने दो तुम उसकी तरफदारी। लीला मुझे सब बताती है। सौतेली माँ है लेकिन कितनी दुखी है वो बेचारी इसकी शादी को लेकर लेकिन इसको तो बस बाहर फिरने से फुरसत मिले तो घर पर टिके। बिट्टू ने कितनी बार बोला है कि दीदी घर पर रहो आप आराम से और मैं कमा लूंगा लेकिन मजाल है मैडम का पैसे का लालच और घूमने का चस्का इसको ऐसा करने दें। लीला तो बताती है अपनी तनख्वाह भी पूरी नहीं देती घर पर और हम सबके सामने देखो कैसे शरीफ बनी फिरती है। मुझे तो यह समझ नहीं आता यह कुंवारा रहकर क्या उखाड़ लेती है लड़कियां और वह भी जो तीस पार कर चुकी हों। देखना जब बूढी हो जाएगी ना और शादी के लिए कोई लड़का नहीं मिलेगा तब पता चलेगा। जब उम्र निकल जाती है तो कोई लड़का नहीं देखता फिर। बत्तीस की तो हो ही गयी है!"

गरिमा की माँ रसोई में जाते जाते भी बोलती ही जा रही थी।

"आपको तो समझाना ही बेकार है" गरिमा भूनभूनाती हुई घर से बाहर निकल गयी।

घर आते हुए अब रावी थोड़ा हल्का महसूस कर रही थी।

जैसे ही घर का दरवाज़ा खोलकर अंदर आई तो वहां उसका भाई बिट्टू, उसकी मां लीला और उसकी बहन नैना, तीनों बरामदे में बैठे मानो उसका ही इंतजार कर रहे थे।

रावी अंदर जाने ही वाली थी कि बिट्टू उसके सामने आकर खड़ा हो गया।

"माफ़ कर दो, दीदी" वो अपने दोनों कान पकड़कर अपने घुटनों के बल उसके आगे बैठ गया था।

Write a comment ...

Suryaja

Show your support

Let's go for more!

Recent Supporters

Write a comment ...

Suryaja

Pro
I’m Suryaja, an Indian writer and a story teller who believes that words are more than ink on paper—they are echoes of dreams, fragments of the past, and shadows of what could be.