रावी की आँखों के सामने एक बूढ़ा, कमज़ोर सा आदमी था जो कचरे कुण्डी के पास अजीब तरह से हँसते हुए नाच रहा था। लोगों की भीड़ उसे घेरे हुए खड़ी थी। अपने सामने का नज़ारा देखकर कुछ पल के लिए तो रावी सुन्न होकर वही खड़ी रही। फिर चेहरा कड़ा करके उस भीड़ के बीच घुसने की कोशिश करने लगी।
"मुझे रास्ता दीजिये... भैया रास्ता दो.... हटो" वो अपने सामने आते लोगों को बोलते हुए, उनको रास्ते से हटाते हुए आगे बढ़ रही थी।
"पापा जी..!" रावी वहां खड़ी तमाशा देखती हुई भीड़ को मुश्किल से चीरती हुई उस नाचते हुए अजीब तरह से हँसते हुए अपने पिता के पास पहुँच गयी और उनका हाथ पकड़कर वहां से ले जाने लगी लेकिन वो अपनी जगह से टस से मस ना होते हुए वहीँ खड़े रहे। भीड़ में खड़े लोगों में से एक आदमी की आवाज़ रावी के कानों तक पहुँची - "इस पागल का...मेरा मतलब है... अंकल जी का ध्यान रखा करो तुम लोग, रावी! खुला ना छोड़ा करो, किसी दिन बड़ी सड़क की तरफ निकल गए तो किसी गाड़ी के नीचे आकर मर जाएंगे"
रावी ने कोई जवाब ना दिया। बस कड़ी नज़रों से उसे घूरा। रावी की तरफ से कोई प्रतिक्रिया ना मिलती देख वो आदमी मुंह बनाता हुआ वहां से चला गया। अब भीड़ भी थोड़ी तितर बितर हो रही थी लेकिन कुछ अभी भी खड़े थे जैसे पूरा तमाशा देख कर ही जाएंगे।
लेकिन रावी का सारा ध्यान अपने पिता पर ही था। "पापा जी! चलो" वो थोड़ा ज़ोर से बोली और उनका हाथ पकड़ कर खींचने लगी लेकिन उसके पिता ने उससे हाथ छुड़ा लिया।
"अबे हट! हर वक़्त मेरे सर पर चढ़ी रहती है पागल औरत.." उसके पिता उसे धक्का देते हुए बोले लेकिन रावी ने उनको अपने से दूर नहीं जाने दिया। उसने फिर से उनकी बाज़ू पर पकड़ जमाई और ज़बरदस्ती उनको लेकर एक अँधेरी गली की तरफ बढ़ गयी।
"बचाओ...! बचाओ....! ये औरत मुझे लेकर जा रही है!" उसके पिता चिल्लाते हुए उसके साथ जा रहे थे। उस तंग मोहल्ले में सब घरों के बाहर अपनी खिड़कियों से झाँक रहे थे। रावी के आंसू बहने लगे। ऐसा तो कितनी बार उसके साथ हो चुका तक फिर क्यूँ हर बार उसे रोना आ जाता था? शायद इसलिए क्यूंकि उसे लोगों का अपनी तरफ तिरस्कार और बेचारगी के भाव लिए देखना चुभता था! उसे ये एहसास करवाता था कि वो चाहे जितना भी पूरा दिन मेहनत करे, मरे खपे, अपनी सारी ताकत लगा ले लेकिन अपनी बिखरी हुई ज़िन्दगी के हिस्सों को समेट नहीं सकती। मानो एक नियमबद्ध तरीके से एक ही दिन बार बार जीने का मानो श्राप लेकर पैदा हुई थी।
उसके पिता अभी भी चिल्ला रहे थे। आख़िरकार हारकर वो रुक गयी और पीछे मुड़कर अपने पिता को देखकर बोली - "पापा जी, आज सिर में बहुत दर्द है....सुबह से कुछ नहीं खाया मैंने.... नौकरी भी चली गयी....कल मुझे नयी नौकरी ढूंढ़ने जाना है....और मुश्किलों को तो मत बढ़ाइये। शांत हो जाइए प्लीज"
उसका लहजा ऐसा था मानो भीख मांग रही हो। ना जाने क्यूँ लेकिन उसके पिता चिल्लाना छोड़कर उसके पीछे पीछे चल पड़े।
"हे भोलेनाथ! रावी जैसी किस्मत किसी को ना मिले!" मोहल्ले की गली में अपनी खिड़की से झांकती एक महिला बिल्कुल अपने सामने वाली खिड़की पर खड़ी दूसरी महिला से बोली।
वो दोनों रावी को अपने पिता के साथ जद्दोजहद करते देख रहीं थीं।
"ये सही कहा बहन! इन सबके पीछे तो बेचारी लड़की की ज़िन्दगी खराब हो गयी। बेशक़ सौतेले ही सही लेकिन जवान भाई और बहन भी हैं लेकिन सब इसे ही नोंचते है और खुद मुफ्त की रोटी तोड़ रहे हैं। अब पूरा दिन बेचारी बाहर रहती है, कम से कम घर की परेशानियों से तो कुछ आराम हो लेकिन नहीं....बाप तो उनका भी है लेकिन बस रावी ही खपेगी जहाँ खपेगी।"
"दुष्ट लोग हैं भाभी। वो अपने पीछे मोहल्ले वाली शर्मा आंटी है ना वो रिश्ता लेकर गयी थीं अपने किसी रिश्तेदार के लड़के का। किसी गोवा के रिसोर्ट में काम करता है लेकिन लीला ने तो साफ मना कर दिया! रावी की दस गलतियां खुद गिनवा दी सो अलग! सोचो भला हमें नहीं पता कि वो कैसी लड़की है, उसकी नैना की तरह आवारागर्दियां नहीं करती। जिस रास्ते जाती है उसी रास्ते आती है। नैना का बोल रही थी कि उससे करवा लो। शर्मा आंटी उलटे पैर वापिस आ गयी।"
"हां ये मैंने भी सुना है, कोई भी इक्का दुक्का जो रिश्ता आता है ये उसकी माँ, रावी की गलतियां निकालने बैठ जाती है। एक को तो बोल दिया था कि...." - वो औरत अपनी आवाज़ बहुत धीमी करके बोली - "वो धंधा करती है..!"
बोलकर वो औरत बहुत ख़ुशी से सामने वाली औरत के चेहरे पर आते हुए हैरानी के भाव देख रही थी।
"झूठ है! मैं नहीं मानती। ऐसा होता तो ठाट होते रावी के। ऐसी औरतें बहुत पैसा कमाती हैं। शक्ल सूरत से भी तो ठीक ठाक है वो। ये लीला बहुत घटिया औरत है। मोहल्ले में तो आए दिन किसी ना किसी से तो इसका झगड़ा हो ही रहा होता है। रावी यहीं इनकी सेवा में सारी उम्र पड़ी रहे इसीलिए ये हरकते करती है।"
"अब क्या करें! घर के मर्द बेकार हो तो घर चलाने के लिए औरत को तो बाहर निकलना ही पड़ेगा। अब बाहर निकलेगी तो दस तरह के लोग और सौ तरह की बातें। खैर जाने दो हमें क्या?!"
"हाँ सही बात है। दूसरों के घरों से हमें क्या लेना देना"
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घर में रावी ने अपने पिता को बिस्तर पर लेटाकर उनपर एक चादर ओढ़ा दी। उसने दवाई दे दी थी और वो अब सो रहे थे। वो नम आँखों से उनके बिस्तर पर बैठी उन्हें देख रही थी।
बस वही एक इंसान था उसके जीवन में जिसके लिए वो इतनी मेहनत करती थी। उसके पिता! जिनसे जुड़ी अच्छी और खूबसूरत यादें उसके दिमाग में ज़्यादा ताज़ी नहीं हैं लेकिन बस अपनों के नाम पर उसके पास यही एक इंसान बचा था।
अचानक रावी की सौतेली माँ की आवाज़ बाहर से आई,
"हो गयी बाप की सेवा तो ये भी बता दो कि आज जो तनख्वाह मिलनी थी उसका क्या हुआ?"
"आपको यहाँ तनख्वाह की पड़ी है?! पापा जी अगर सड़क की तरफ निकल जाते और गाड़ी के नीचे आ जाते तो?! हमेशा की तरह मैं अकेली गयी उन्हें ढूंढ़ने" रावी कमरे से बाहर आते ही बोली।
"ऐसे कैसे गाड़ी के नीचे आ जाते बेटा?" उसकी माँ, लीला का स्वर थोड़ा धीमा हो चुका था। "हम तो इतना ध्यान रखते हैं लेकिन बाहर कब निकल जाते हैं पता ही नहीं चलता। आइंदा से ध्यान रखेंगे ना। अच्छा ये बताओ, पैसे मिले आज?"
"नौकरी चली गयी" रावी ने थोड़ा शांत होते हुए बोला।
"क्या?! ऐसे कैसे चली गयी?" उसने बड़ी हैरानी से पूछा।
"अंकल जी को कोई दिल की तकलीफ है इसीलिए वो ढाबा बेच रहे थे तो एक महीने का एडवांस देकर उन्होंने मुझे कल से आने के लिए मना कर दिया" बोलते हुए रावी की आवाज़ में हताशा थी।
"ऐसे कैसे मना कर दिया? इतनी मुश्किलों से तो मिली थी ये नौकरी ! ये तुम एक जगह टिक कर नौकरी क्यूँ नहीं कर पाती? एक दो साल के बाद सब निकाल देते हैं। हाय! कीड़े पड़े उस बूढ़े को, इतना काम करती थी तू उसके ढाबे का" उसकी माँ आवाज़ ऊँची करती हुई बोली। रावी को उनकी कर्कश आवाज़ अपने दुखते सर पर हथोड़े की तरह बजती महसूस हो रही थी।
"ऐसा मत बोलिये उनका बुरा वक़्त चल रहा है। वो ढाबे पर आदमी ही रखते हैं लेकिन मुझे तरस खाकर रख लिया था क्यूंकि उस वक़्त मुझे पैसों की बहुत ज़रूरत थी। हाँ लेकिन आप चिंता मत करिये मैं दूसरी ढूंढ लूंगी"
"अरे चिंता किस बात की? हमारी रावी है ना! ढूंढ ही लोगी तुम नयी नौकरी। मुझे यकीन है तुम पर" उसकी माँ अचानक अपना सुर बदलती हुई बोली।
रावी ने नकली मुस्कुराहट लिए एक लम्बी सांस छोड़ी। उसे बहुत तेज़ भूख लगी थी, "मुझे खाना ...."
वो अपनी बात अभी पूरी भी नहीं कर पाई थी कि लीला सामने हाथ फैलाये उसकी बात काटते हुए बोली,
"खाना बाद में पहले अपनी तनख्वाह दे दे बेटा। घर का राशन पानी सब खत्म हुआ पड़ा है। पिछला उधार भी देना है। 16 हज़ार मिले ना? दो महीनों की मिली है ना! ला शाबाश"
रावी कमरे में गयी और जल्दी ही बाहर आ गयी। आते ही उसने अपने हाथ में लिए पैसे अपनी सौतेली माँ के हाथों में दे दिए और बिना कुछ बोले रसोईघर की तरफ बढ़ गयी। वहां देखा तो खाने को कुछ नहीं था। वहां बर्तनों को टटोलते हुए रसोई से ही उसने अपनी माँ की तरफ देखते हुए पूछा।
"आपने खाना नहीं बनाया मेरे लिए? आपको पता तो है मैं इस वक़्त घर आ जाती हूँ। सुबह से नहीं खाया मैंने। बस चाय ही मिली सुबह भी"
"तो एहसान करती हो हमपर महारानी" लीला ने मुंह में ही बड़बड़ किया जो रावी को तो सुनाई नहीं दिया लेकिन उसके हिलते होंठों की भाषा उसे अच्छे से समझ आती थी।
फिर लीला ने बहुत ही प्यार से जवाब दिया- "वो बिट्टू आया था ना उसने खा लिया होगा, मैंने तेरे लिए ही रखा था। चल तू रोटी बना ले जल्दी जल्दी और खा ले। सुबह से नहीं खाया ना तूने" वो पूरी तन्मयता से पैसे गिन रही थी। पूरे 16 हज़ार देखकर उसकी आँखों में अलग ही सुकून था।
रावी अपने लिए खाना बनाने में लग गयी। फिर रसोईघर में बर्तन बजाते हुए बोली,
"इसमें से 6 हज़ार रख दीजियेगा पापा जी की दवाओं के लिए। बाकी खर्चे का बिल मुझे दिखा दीजियेगा। बिट्टू को एक पैसा नहीं मिलना चाहिए इससे, सब अपने नशे में उड़ा देगा। उसे भी समझाइये और नैना को भी कि पढ़ाई पर ध्यान लगाएं। आवारागर्दी से कुछ नहीं मिलेगा। दो जन और नौकरी करेंगे तो मेरे धक्के भी कम हो जाएंगे"
उसने बोला ही था कि तभी एक 19-20 साल का लड़का घर का गेट खोलते ही ज़ोर से चिल्लाने लगा,
"अरे बहुत एहसान करती हो ना हम पर ये कुछ हज़ार कमा कर!"
तभी लीला अचानक बरामदे में आकर बोली,
"बिट्टू! चुप कर"
रावी चुपचाप रसोई में खड़ी थी और खिड़की से बिट्टू को देख रही थी।
लेकिन बिट्टू कहाँ सुनने वाला था। वो और ज़ोर से चिल्लाते हुए बोला,
"क्यूँ चुप करूँ? हाँ? मैं क्यूँ चुप करुं? अरे हाँ!! आज तो दस तारीख़ है ना! जब भी पैसे घर देने की बारी आती है तो इस रावी का यही तमाशा शुरू हो जाता है। हर बार ताने कसती है, हर बार जताती है। खुद तो कॉलेज बीच में छोड़ दिया, हमें पढ़ाई सिखाएगी...." वो अपनी माँ की तरफ देखते हुए बोल रहा था जो उसे इशारे से चुप रहने को बोल रही थी।
"आप इशारे क्या कर रहीं हैं? आप कर सकती हैं इसके सामने नाटक, मैं नहीं कर सकता। पड़े रहने देतीं ना इसको गुरदासपुर क्यूँ लाई आप इसे यहाँ मुंबई?! जब देखो भाषण के साथ हमारे सर पर सवार रहती है।"
रावी शान्ति से रसोई से बाहर आई और बिट्टू के सामने आकर खड़ी होकर बोली,
"तुम्हारे भले के लिए ही बोलती हूँ मैं। सारी उम्र बिठा कर मैं ही खिलाऊंगी क्या? पैसे कितनी मेहनत से कमाये जाते हैं ये तुम्हें अभी समझ नहीं आएगा क्यूंकि तुम लोगों का पेट पालने के लिए मैं अपनी ज़िन्दगी गला रहीं हूँ। पता है कितनी बेइज़्ज़ती महसूस होती है.... जब बिना कोई डिग्री नौकरी माँगने पर दरवाज़े मुंह पर बंद होते हैं? जब लार टपकाते हुए इंसान की शक्ल में भेड़िये मिलते हैं? जब भीड़ से भरी बसों में लोग बहाने लेकर आपके ऊपर गिरते पड़ते रहते हैं ताकि किसी तरह आपको छू सकें?"
बिट्टू फुन्फकारता हुआ कुछ बोलने ही वाला था कि रावी ने उसको अपना हाथ दिखाकर चुप करवा दिया।
"बस! बहुत हो गया। 19 साल की थी जब कॉलेज की पढ़ाई छोड़कर पहली बार घर के बाहर घर का मर्द बनकर कमाने के लिए निकली थी क्यूंकि बाप दिमागी मरीज़ था और मेरे भाई बहन छोटे! दुनिया की समझ मुझे तुमसे ज़्यादा है। अगर इतने ही बड़े हो कि बड़ी बहन से तू तड़ाक करते फिरते हो और उसकी सीख भाषण लगती है तो खुद कमाओ और अपने कॉलेज की फीस भरो। मुझसे एक फूटी कौड़ी नहीं मिलेगी तुम्हें!"
बोलकर रावी ने मुंह मोड़ लिया। उसकी आँखों से आंसुओं का झरना बहने लगा। वो अपने कमरे के अंदर चली गयी थी और लीला ने अपना सर पकड़ लिया था।

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