खिड़की से आती सुबह के सूरज की रोशनी ज़ब उसके चेहरे पर गिरी तो उसकी पलकें हल्की हिली। उसकी नींद में ये रोशनी रूकावट ना बने इसलिए उसने अपना हाथ अपनी आँखों के आगे करने की कोशिश की लेकिन इस कोशिश में उसे एहसास हुआ कि वो पीछे से किसी की बाहों के एक मज़बूत घेरे में जकड़ी हुई थी! उसने धीरे से अपनी कमर पर रखे हाथ को हटाने की एक नाकाम कोशिश की। फिर अपने कंधे से नीचे उसको घेरे में लिए दूसरे हाथ को हटाना चाहा लेकिन उस जकड़न से आज़ाद नहीं हों पायी। ज़मीन पर बिखरे उसके कपड़ों पर उसकी नज़र गयी और थोड़ी देर बाद वो कोशिश करना बंद कर चुकी थी।
पीछे से उससे लिपटे उस इंसान की साँसे अब उसे अपने कंधे पर महसूस हों रही थीं। उसने अब उसे और मज़बूती से जकड़ लिया था।
"मैं जानती हूँ आप सोये नहीं हैं" उसने मानो हार मान ली थीं।
वो अपने सामने एक दीवार की जितनी बड़ी खुली खिड़की की ओर देखकर बोली जहाँ से सुबह की धूप अंदर आ रही थी। बाहर समुद्र की लहरें किनारे से टकराती हुई शोर मचा रही थीं और वहां से ठंडी हवा उस कमरे तक आ रही थी जिससे खिड़की के परदे उड़ रहे थे।
उस इंसान ने कोई जवाब नहीं दिया लेकिन वो जानती थी कि वो जगा हुआ था और उसे अपनी बाहों से आज़ाद नहीं करना चाहता। वो हल्का सा मुस्कुराई और सामने लहरों को एकटक निहारने लगी। कितनी अलग दुनिया थी! उसकी नहीं थी लेकिन फिर भी सिर्फ उसी की लगती थी।
क्या ये वही दुनिया थी जहाँ सही और गलत का फर्क खत्म हो जाता था? जहाँ कुछ बचता था तो बस दिल के एहसास? एहसास......अदृश्य लेकिन शायद दुनिया में सबसे ताकतवर!
क्यूँ इनके आगे इंसान की हर इंद्री हार मान जाती है? क्यूँ एक बार इनकी गिरफ्त में आने के बाद इंसान का सब बदल जाता है। शायद इसका जवाब किसी के पास नहीं। कितनी अलग है ये दुनिया! एहसासों की दुनिया। अनजानी है लेकिन अपनी सी लगती है.... जहाँ खुल कर सांस आती है.... जहाँ आने के बाद वापिस मुड़ने के नाम पर ही दिल बैठ जाता है। ये दुनिया....ये प्यारी दुनिया मानो किसी भटकते हुए बंजारे का घर।
"शादी करोगी?" वो इंसान आख़िरकार बोला।
कुछ महीने पहले
उसकी नज़र घड़ी पर गयी। शाम के सात बज चुके थे। जल्दी जल्दी अपने हाथ चलाने लगी। थोड़े ही समय में सारा किचन साफ हो गया था। सांस फूल रही थी तो अपनी कमर और उखड़ी हुई साँसों को आराम देने के लिए वहीँ पास में एक कुर्सी पर बैठ गयी। फिर याद आया कि आज तो महीने की दस तारीख़ है, शायद आज तनख्वाह मिल जाए तो शरीर में थोड़ी फुर्ती आ गयी। उठने को हुई लेकिन आँखों के आगे कुछ पल के लिए अँधेरा छा गया। सिर में हल्का हल्का दर्द शुरू हो गया था।
"अरे पुत्तर तू यहाँ बैठी है? मुझे लगा चली गयी होगी। ढूंढता हुआ अंदर ही आ गया" एक बूढा सरदार कमरे के अंदर आकर उसे देखता हुआ बोला। "क्या हुआ? तबियत तो ठीक है?" वो भी पास एक कुर्सी लेकर बैठ गया।
"हाँजी, ठीक है। बस ज़रा कमज़ोरी है" वो ज़बरदस्ती मुस्कुराते हुए बोली। सरदार जी ने जेब में हाथ डालकर पैसों की गड्ढी निकाली और कुछ पैसे गिनकर उसकी तरफ बढ़ा दिए। उसने हल्का मुस्कुराते हुई पैसे ले लिए।
"गिन लो" सरदार जी बोले।
"नहीं नहीं अंकल जी... पूरे ही होंगे" वो पैसे लेकर कुर्सी से उठ खड़ी हुई थी।
"दो महीने की तनख्वाह है" सरदार जी के चेहरे पर हलकी उदासी आ गयी थी।
"दो महीने की? पर क्यूँ?" उसने अपने हाथ में लिए पैसो पर नज़र डाली।
"वो बेटा..." थोड़ा रुकते हुए वो फिर बोले - "मैं ढाबा बंद कर रहा हूँ"- बोलने के बाद वो उसको देखने लगे थे।
ये शायद उनकी ज़िन्दगी का सबसे मुश्किल काम था जो आज उन्होंने किया था।
"अच्छा...." वो धीरे से बोली। चेहरे पर शून्यता थी।
"दिल की तकलीफ बढ़ती जा रही है। डॉक्टर ने ऑपरेशन का बोला है। लाखों लगेंगे, ढाबा बेचना पड़े शायद! अब बेटे भी इतने कमाऊं पूत तो हैँ नहीं जिनका कोई आसरा हो। तूने बहुत साथ दिया बेटा, अच्छा नहीं लग रहा तुझे मना करते हुए लेकिन मज़बूरी है" वो उसके सर पर हाथ रखते हुए बोल रहे थे।
"कोई बात नहीं.... आप चिंता ना करें आप ठीक हो जाएंगे। मैं चलती हूँ। आप अपना ध्यान रखना" उसने किचन के एक कोने में रखा अपना बैग उठा लिया था जो झोला ज़्यादा लग रहा था।
"तुम भी ख्याल रखना" वो मुस्कुराते हुए उसे जाते देख रहे थे।
"हे वाहेगुरु! खुश रहीं एहनू" वो बस जाते जाते उसे देखते हुए बुदबूदाये। उसने जाते जाते एक नज़र पीछे देखा, ढाबे के ऊपर बोर्ड पर लिखा था "वीरां दा ढाबा" उसे देखकर एक गहरी सांस ली और आगे बढ़ गयी।
कदम भारी थे लेकिन चलना तो था क्यूंकि जहाँ अब तक थी वहां कुछ बाकि नहीं रह गया था अब उसके लिए। बस स्टॉप पर गाड़ी का इंतज़ार करती हुई पैसे गिनना शुरू किये उसने, झोला बीच बीच में कंधे से सरक रहा था, सर दर्द बढ़ चुका था लेकिन उसका ध्यान सिर्फ पैसे गिनने पर था। पूरे 16 हज़ार - उसके दो महीनों की तनख्वाह!
भीड़ से भरी बस से लेकर अपने मोहल्ले की तंग गलियों से पहले आते लोगों से खचाखच भरे बाज़ार तक, ना जाने कितनी ही बार उसने ये हिसाब लगा लिया था की ये पैसे कहाँ खर्च होंगे और कितनी जल्दी खर्च होंगे। सर दर्द से फटा जा रहा था।
लग रहा था अभी गिर पड़ेगी इसीलिए थोड़ा सम्भलती हुई एक टीवी शोरूम के बाहर सीड़ियों पर बैठ गयी।
तबियत तो सुबह से ही ठीक नहीं थी उसकी। वहीँ बैठी एक गहरी सांस छोड़कर सडक पर सैलाब की तरह दौड़ती दुनिया को देखते हुए अपनी ही सोच में गुम थी।
शोरूम के अंदर खडे बहुत लोग वहां दीवार पर लगे टीवी पर नज़र गाड़े हुए थे जहाँ न्यूज़रूम के अंदर बैठी मेकअप में पुती हुई टीवी एंकर पूरे जोश के साथ बोल रही थी-
"हमारे साथ नये जुड़े दर्शकों को बता दे आज की ब्रेकिंग न्यूज़! दुनिया के अमीरों में शुमार होने वाले, भारत के बड़े उद्योगपति, राजशाह ग्रुप ऑफ़ कम्पनीज के एमडी और चेयरमैन, ज़ोरावर सिंह राजशाह और ऑरोरा डायमंण्ड्स की मालकिन मृणालिनी जय सिंह, अपनी शादी के पांच साल बाद अलग होने का फैसला ले चुके हैँ। हालांकि अभी डिटेल्स का पता नहीं चल पाया है लेकिन देश के दो पावरफुल एम्पायर्स के अलग होने से दोनों के शेयर्स की गिरावट के साथ साथ इस तलाक का असर देश और दुनिया की स्टॉक मार्किट पर पड़ने के पूरे आसार हैँ। बताते चले आपको...."
"अरे यार। मैंने तो कल ही पैसे लगाए थे शेयर मार्किट में। बेडा गर्क हो।"
"अबे रुक तो जा। पहले ही मातम मनाना शुरू कर दिया तूने। कल तक पता चलेगा"
वहां से बाहर आते कुछ नौजवान शेयर मार्किट में लगे अपने पैसों के भविष्य का आकलन कर रहे थे। उनकी आवाज़े उसके कानों में चुभ रही थी। सर फट रहा था। वो हिम्मत करके उठ कर चल पड़ी अपनी मंज़िल की ओर। धीरे धीरे चलते हुए एक अँधेरी तंग गली पार कर एक मोहल्ले में घुसी तो एक औरत ने अपने घर की खिड़की से आवाज़ लगाई। मानो उसी के आने का इंतेज़ार कर रही हो।
"आ गयी, रावी?"
"जी मौसी"
"भई तेरी माँ बहुत ढीठ है। आज फिर तेरे लिए एक रिश्ता लेकर गयी थी घर लेकिन तेरी माँ ने उलटे पैर वापिस भेज दिया। लड़का अच्छा खासा कमाता है लेकिन पहली माँ देखी है जो लड़की को ब्याहना नहीं चाहती। कब तक घर बिठा कर रखेगी तुझे? बत्तीस की तो हो गयी तू और ज़ब से तुझे देखा है बस मज़दूरी ही कर रही है... बेटा थोड़ा ध्यान...."
"मेरी तबियत ठीक नहीं है मौसी... वो...."
"ओह्हो! मैं भी बेवक़ूफ़। सुबह तड़के निकलती है और देर शाम घर पहुँचती है। जा जा घर जाकर आराम कर। कहाँ बातें लेकर बैठ गयी मैं"
रावी थोड़ी दूर अपने घिसटते क़दमों से चलती हुई एक छोटे से घर के अंदर दाखिल हुई जो काफी पुराने ज़माने का लग रहा था और जिसकी बदरंग दीवारे और खस्ता हालत उस घर की और वहां रहते लोगों की हालात की तंगी बखूबी बयान कर रही थीं।
दरवाज़ा खोलकर अंदर घुसी ही थी कि सामने बरामदे में साधारण से कपड़े पहने एक औरत दरवाज़े के तरफ ही देख रही थी। उसके साथ एक कमरे के पुराने ज़माने के दिखने वाले दरवाज़े पर एक चौबीस साल की लड़की खड़ी थी। उसने कपड़े अपेक्षाकृत अच्छे पहन रखे थे। रावी उन दोनों को नज़रअंदाज़ करके वहीँ एक पुराने ज़माने की कुर्सी पर अपना थैला रखकर अंदर एक कोने के कमरे में चली गयी।
"हाँ ये ठीक है, बाहर से घूम फिर कर आओ और सीधे बाप के पास माथा टेकने चले जाओ और जो माँ पूरे दिन घर बैठी सोच सोचकर अपनी जान खपाती है कि ना जाने उसकी जवान जहान बेटी" उसके बोलते ही उसके साथ खड़ी वो लड़की ज़ोर से हंसने लगी "जवान जहान?! माँ इतना भी झूठ मत बोलो। बत्तीस की है रावी!"
"चुप कर जा तू!"
उस औरत ने उसे चुप करवाकर फिर बोलना शुरू किया -"माँ को तो यही चिंता रहती है कि मेरी फूल सी बेटी कहाँ जान खपा रही होगी, लेकिन माँ की चिंता का कोई ख्याल नहीं।"
"सौतेली माँ" वो पास खड़ी लड़की हंसती हुई फिर बोली। उस औरत ने उसे एक नज़र घूरकर वहां कुर्सी पर पड़े रावी के थैले की ओर इशारा किया और इसी बात पर शिकायत करती हुई ज़ोर ज़ोर से राग अलापती रही कि माँ से कोई लगाव ना है।
वो बोलते हुए बीच बीच में कमरे के अंदर देख रही थी जहाँ रावी गयी हुई थी। अचानक रावी कमरे से बाहर हड़बड़ाई हुई आई।
"पापा जी कहाँ है?" रावी घबराई हुई बोली।
उसका थैला जो उसने कुर्सी पर रखा था वो उस लड़की ने खोल लिया था। वो अंदर से सामान खंगाल रही थी मानो कुछ ढूंढ रही हो।
"मैंने पूछा पापा जी कहाँ हैँ?!" वो लगभग चिल्लाती हुई बोली।
"पीछे ग़ुसलखाने में होंगे" वो लड़की लापरवाही से बोली।
"नहीं हैँ मैंने देखा!"
"होंगे यहीं कहीं" उस लड़की का सारा ध्यान उसके थैले में घुसाये अपने हाथों पर था।
"नैना!!!" रावी ने एकाएक चिल्लाते हुए उससे थैला ले लिया।
उसके चिल्लाते ही साथ वाले कमरे की खिड़की से अपना चेहरा निकालकर वो औरत अब भारी सी आवाज़ में बोली -
"अरे! चिल्ला क्यूँ रही हो? बोला ना उसने यहीं कहीं होंगे। तुम हर बात का गुस्सा हम पर ही निकालती हो। आज पैसे मिले ना तुम्हें? कहाँ रखे? तुम्हारे थैले में नहीं है!"
रावी बिना कुछ बोले अपने घर के गेट से बाहर दौड़ पड़ी। वो पागलों सी हड़बड़ाई हुई मोहल्ले की गली में भाग रही थी।
तभी सामने से एक दस बारह साल का लड़का "रावी दीदी" चिल्लाता हुआ उसके पास आकर खड़ा हो गया। वो बुरी तरह से हांफ रहा था।
"रावी दीदी, रावी दीदी आपके पापा....." अपनी उखड़ी हुई साँसे लिए वो इतना ही बोल पाया।
"कहाँ?"
"वो बाज़ार के कचरा कुण्डी के पास! बहुत भीड़ है वहां"
रावी सुनते ही बाजार की तरफ दौड़ पड़ी।
वहां हाँफते हुए पहुँची तो सामने का नज़ारा देखकर दंग रह गयी। सामने का नज़ारा उसके लिए नया नहीं था बस जब भी ये नज़ारा उसके सामने आता था उसका कलेजा मुंह को आ जाता था।

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