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भाग - 22

सांगेर हॉउस, नई दिल्ली

सुबह का वक़्त

हॉल में रखे लैंडलाइन फ़ोन की घंटी लगातार बज रही थी। कावेरी जी बाहर पौधों को पानी दे रहीं थीं। जब एहसास हुआ कि फ़ोन की घंटी की आवाज़ आ रही है तो काम छोड़कर अंदर आ गयीं।

फ़ोन उठाकर "हेलो" बोला तो कुछ पल तो सामने से आने वाली आवाज़ का इंतज़ार करती रहीं।

"हेलो" सामने से कोई आवाज़ ना सुनाई दी तो फिर से उन्होंने अपने शब्द दोहराए।

"इस दिस सांगेर हॉउस?(क्या ये सांगेर हॉउस है?)"

"यस"

"मे आई नो हु ऍम आई टॉकिंग टू? (क्या मैं जान सकता हूं कि मैं किससे बात कर रहा हूं?)"

"कावेरी सिंह सांगेर से बात कर रहे हैं आप, कहिये..."

"आपके बेटे को मुठभेड़ में गोली लगी है मैम" फ़ोन पर उस ऑफिसर की आवाज़ हल्की सी काँपी। किसी भी परिवार को देश की सुरक्षा में लगे उसके बच्चे की जान पर मंडरा रहे खतरे के बारे में बताना कभी भी आसान नहीं होता है फौज के लिए लेकिन करना पड़ता है। ड्यूटी है!

"गोली लगी है या गोलियाँ?" कावेरी जी अपनी आवाज़ को दृढ़ रखने की पूरी कोशिश करते हुए बोलीं।

"गोलियां लगी हैँ मैम" उसकी आवाज़ फिर काँपी।

"ज़िंदा बच जाएगा ना?" कावेरी जी ने रुंधे गले से सवाल किया।

"हम पूरी कोशिश कर रहे हैं मैम!"

फ़ोन बीच में ही बंद कर कावेरी जी सोफे पर धम से बैठ गयीं।

फिर से वही सब दोहराया जा रहा था। सब कुछ वही!

अपने अंदर उफ़नते हुए आंसुओं को समेटने की कोशिश लेकर उनकी नज़रेँ सामने लगे फैमिली पोट्रेट पर चली गयीं जिसमें आर्मी की वर्दी पहने यशवंत जी, संग्राम और वायु सेना की वर्दी पहने विक्रम के बीच खड़े होकर ठहाका लगाती कावेरी जी से तो मानो किस्मत भी जलती दिखाई दे रही थी। सब कुछ कितना परफेक्ट था! लेकिन कुदरत को मानो उनके खानदान से बलिदान लेने की आदत सी पड़ चुकी थी।

पहले विक्रम और अब संग्राम!

"हे प्रभु! कितना बलिदान देगी मेरी कोख?!" उन्होंने हाथ जोड़ लिए और रोने लगीं।

यशवंत जी को पता चला तो उन्होंने सबसे पहले संग्राम के यूनिट के कमांडिंग ऑफिसर को फ़ोन मिलाया। बात करने पर पता चला कि वो बुरी तरह ज़ख़्मी है लेकिन अभी भी ज़िंदा है, साँसे चल रहीं हैं उसकी। बस फिर उन्होंने खुद भी हिम्मत बांधी और कावेरी जी को भी समझाया लेकिन माँ का दिल कहाँ शांत हो रहा था। उसे तो बस अपने बच्चे को सही सलामत देखना था!

वहां जाकर कुछ भी हो सकता है और कोई भी सन्देश मिल सकता है- इस अंदेशे को अपने साथ बांधे दोनों पति पत्नी उसी वक़्त श्रीनगर के लिए रवाना हो गए।

नरियापुर गाँव

सुबह का वक़्त

नंदिनी अभी स्कूल पहुंची ही थी कि उसके हैंडबैग में रखा फ़ोन बजने लगा। वो अपने सरकारी स्कूल के सामने बहुत सारे बच्चों को खेलते हुए देखकर मुस्कुरा उठी। बच्चे हमेशा से ही उसे भाते थे। आज वो सब उसे कुछ ज़्यादा ही प्यारे लग रहे थे। एकदम मस्तमौला और बेफिक्र सी हवा उन्हें छूकर उसकी तरफ आयी हो जैसे।

यहीं तो हैँ देश का भविष्य! देश का भविष्य.... जिसके लिए कुछ लोग अपना वर्तमान दांव पर लगाने से पहले एक पल भी नहीं सोचते!

फ़ोन एक बार बजने के बाद बंद हो गया। फिर से बजने लगा। नंदिनी का ध्यान अचानक फ़ोन की ओर गया।

"नवी!!" ख़ुशी से नंदिनी ने बैग में से टिफिन और किताबों के बीच मशक्क़त करते हुए फ़ोन बाहर निकाला। नवीन अक्सर सुबह सुबह फ़ोन किया करता था। ज़्यादातर उसके मिशन सुबह के पहले पहर ही खत्म हुआ करते थे और वो इसी वक़्त के करीब बेस में पहुँच जाया करता था और पहुँचते ही अपनी खैर खबर उसे दिया करता था।

इस बार भी नंदिनी की वही उम्मीद थी जो बहुत जल्दी टूटने वाली थी!

स्क्रीन पर रमन का नाम दिखाई दे रहा था। नंदिनी की मुस्कुराहट हल्की हो गयी लेकिन गायब नहीं हुई। रमन उसे वैसे भी बहुत कम फ़ोन किया करता था। नंदिनी वैसे भी संकोची और अंतर्मुखी स्वभाव की थी, नए लोगों से इतनी जल्दी घुलती मिलती नहीं थी इसीलिए वो कोई शिकायत भी नहीं करती थी।

फोन रिसीव करते ही उसने कान पर लगाया और जैसे ही वह कुछ बोलने को हुई, सामने से रमन की आवाज़ आयी - "हेलो नंदिनी, कहाँ हो तुम?"

"स्कूल में" नंदिनी ने जवाब दिया। उसे वो थोड़ा घबराया हुआ लग रहा था। हालांकि नंदिनी की आवाज से रमन को इतना पता चल गया था कि अभी तक उसे पता नहीं है और उसे खुद बताने की उसके पास हिम्मत नहीं थी।

"अच्छा। ऐसा करो वहीँ रुको, मैं आ रहा हूं। बस पांच मिनट में पहुँच रहा हूं"

"लेकिन आप क्यूँ आ रहे हैं?"

"बस यूँ ही काम है कुछ"

"सब ठीक तो है ना?"

"अरे हाँ हाँ, सब ठीक है" उसकी जुबान लड़खड़ाई लेकिन उसने संभाल लिया।

"लेकिन मुझे छुट्टी नहीं मिलेगी"

"वो बात कर ली है पापा ने"

नंदिनी को अजीब लग रहा था लेकिन उसने कोई सवाल नहीं किया। फोन बंद कर जैसे ही वो पीछे मुड़ी, सामने दो तीन टीचर्स स्टाफ रूम से बाहर आ चुके थे। लेकिन कुछ ही पलो में वो लोग वापिस मुड़ गए।

कुछ ही देर में रमन अपनी गाड़ी लेकर नंदिनी के स्कूल के बाहर खड़ा था। उसने नंदिनी को गाड़ी में बिठाया और उसके घर की तरफ गाड़ी मोड़ दी। वो गाड़ी बहुत रफ़्तार में भगा रहासब था।

"आप इतनी तेज़ गाड़ी क्यूँ चला रहे हैं?" नंदिनी को अब घबराहट हो रही थी।

"घर जल्दी पहुंचाना है आपको"

"घर पर कुछ हुआ है क्या?" नंदिनी को अब बहुत सारे अंदेशो ने घेर लिया था। माँ की तबियत खराब हो गयी? या बाबा की तबियत को कुछ हुआ है? लेकिन अचानक क्या हुआ, सुबह तक तो सब ठीक थे।

नवीन को भी कुछ हो सकता है, इस बात का ख्याल तो दूर उसे वहम भी ना हुआ!

रमन ने गाड़ी घर से थोड़ी दूर एकदम खुले मैदान में रोक दी और उसे घर में जाने का ईशारा किया।

लेकिन ये क्या?! इतने लोग क्यूँ हैँ?! और सब बाहर हैं?!

अपने घर की तरफ चलते हुए उसने अपने घर के आसपास घरों पर नज़र घुमाई, सब अपने छतो पर चढ़े हुए थे। औरतों ने घूंघट ओढ़ कर रोना धोना मचा रखा था। कुछ एक की नज़र उस पर गयी और उन्होंने उसका नाम ज़ोर से चिल्ला कर रोना शुरू कर दिया।

नंदिनी का दिल बैठ गया! एकदम से! उसके घर पर कुछ हुआ है!

उसका मन था कि दौड़ कर घर के अंदर जाए और जाकर देखे लेकिन शरीर ने साथ देना बंद कर दिया था। चाह कर भी तेज़ी से कदम नहीं बढ़ा पा रही थी।

आख़िरकार नंदिनी भारी कदमों से घर के दरवाज़े के अंदर दाखिल हुई। बरामदे में इतने लोग.... मानो सारा गाँव इकठ्ठा था! घर के अंदर से रोने की आवाज़ें आ रहीं थीं लेकिन सबसे ऊँची एक आवाज़ - जो बुरी तरह से चीख रही थी मानो किसी ने उसका कलेजा काटकर बाहर निकाल दिया हो!

"माँ...!" नंदिनी बुदबूदाई। धड़कनो की रफ़्तार तेज़ हो गयी थी और दो पलों में ही पूरी पसीने से नहा उठी वो। मन आगे बढ़ना चाहता था लेकिन शरीर साथ नहीं दे रहा था। सुन्न थी वो।

आँखें छलछला आयी उसकी। भागकर माँ के पास गयी। वो बेहोश सी थीं। बहुत सी औरतों ने रोते हुए उन्हें पकड़ रखा था। उसके पिता एकदम कोने में चुपचाप सर पर अपने दोनो हाथ रखे बैठे हुए थे।

ये सब तो ठीक हैं! फिर कौन? नंदिनी के मन में आवाज़ कौँधी।

"नवीन चला गया!!.... नंदा!! अपना नवीन चला गया, नंदा!.... हम सबको अकेला छोड़कर चला गया।.... ओ शहीद हो गया तेरा नवीन, नंदा!" उसकी बुआ छाती पीटती हुई उसके पास आकर बिलखने लगीं।

नंदिनी पर तो मानो सैंकड़ो बिजलियाँ एक साथ गिरी!

"नहीं। उसको कभी.... नहीं हो सकता.... कुछ नहीं.... हो सकता। मुझसे पूछे बिना वो कभी कहीं नहीं जाता। ना, नहीं... कुछ नहीं हुआ। झूठ है सब" नंदिनी बड़बड़ाती हुई अपनी माँ की तरफ बढ़ गयी जो ज़मीन पर बेसुध सी लाश जैसे पड़ी हुई थी।

"माँ। सब झूठ है। कुछ नहीं हुआ। शाम को फ़ोन आएगा उसका। सकुशल है... यही बोलेगा वो। आप ना मेरी बात सुनो... माँ" उसने अपनी माँ का निर्जीव सा चेहरा अपनी ओर घुमाया।

नंदिनी को सामने देखकर उसकी माँ ने अपने खाली हाथ आगे किये और अपना आँचल फैला दिया। उनकी रुलाई फिर छूट गयी- "उजड़ गयी तेरी माँ, नंदा!....कोख उजड़ गयी!.... अब खाली है तेरी माँ!.... खाली आँचल.... खून से भरा आँचल...." वो नंदिनी के गले लगकर बिलखने लगीं। "तू बोलेगी तो वापिस आ जाएगा। ले आ उसे, नंदा। ले आ नवीन को वापिस और मेरे आँचल में डाल दे। तेरी बात तो कभी नहीं टालता। दे दे मुझे मेरा बेटा!!!" नंदिनी ने उनके आंसू साफ किये।

"नहीं हुआ कुछ भी नवीन को! बोल रहीं हूं मैं! आप जानती तो है वह मेरी हर बात मानता है बस मैं उसको एक फोन करती हूं और उसको डांट लगाती हूं देखिएगा कैसे भागता हुआ आएगा। आप रुकिए बस एक मिनट..." नंदिनी उठकर इधर उधर फ़ोन ढूंढ़ने लगी। वो उस वक़्त बिल्कुल पागलों जैसी हरकते कर रही थी।

मानने को तैयार ही नहीं थी कि उसका नवीन जा चुका! सब उसे देखकर रो रहे थे।

"नंदा!" उसके पिता ने उठकर उसका हाथ पकड़ लिया।

"आप सब झूठ बोल रहे हैं! सब के सब झूठ बोल रहे हैं! झूठे! सब के सब झूठे!" नंदिनी अचानक उनका हाथ झटकते हुए चिल्लाने लगी। उसके पिता असहाय से रोते हुए उसे देख रहे थे।

"नहीं हुआ मेरे नवी को कुछ! हो ही नहीं सकता! उसने बोला था मुझे वो जल्दी वापिस आएगा। फ़ोन करेगा मुझे। उसने किया होगा फ़ोन, अभी यहीं था मेरे बैग में। मेरा बैग कहाँ हैँ? वहीँ होगा फ़ोन.... आया होगा उसका फ़ोन" वो खुद में ही बड़बड़ाती हुई बाहर को भागने लगी तो उसके पिता ने फिर उसे कसकर पकड़ लिया और रोते, बिलखते हुए "ना" में सर हिलाने लगे।

"एक बार देखने दो, बाबा.... आया होगा उसका फ़ोन.... एक बार फ़ोन देखने दो....." वो तड़पते हुए मोहन जी की पकड़ से आज़ाद होने की कोशिश करती रही लेकिन उन्होंने उसका हाथ नहीं छोड़ा। आख़िरकार उसकी कोशिश हल्की पड़ गयी।

आख़िरकार दिल भी वो मानने की कोशिश में लग गया जिसे दिमाग ने कब से मान लिया था।

मोहन जी ने उसे अपने सीने में कसकर समेट लिया। वो लगातार ना समझी जा सकने वाली बातें बोल रही थी....आवाज़ बहुत धीमी थी । पूरी तरह से अभी भी सच्चाई को स्वीकार नहीं किया था उसने लेकिन सच को कभी झुठला नहीं सकते। चाहे वो कितना ही डरावना हो!

"बाबा! हमारा नवी हम सबको छोड़कर चला गया! हमारा नवी चला गया, बाबा! मेरा भाई......चला गया!!"

-अब वो लगातार एक ही बात बोल रही थी।

दोनों बाप बेटी एक दूसरे के गले लगे बिलख रहे थे।

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Suryaja

I’m Suryaja, an Indian writer and a story teller who believes that words are more than ink on paper—they are echoes of dreams, fragments of the past, and shadows of what could be.