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भाग - 15

दिल्ली एयरपोर्ट से बाहर आते ही नवीन को सामने ही संग्राम दिख गया था। वो उसे लेने खुद आया है ये देखकर नवीन बहुत ख़ुशी से उसकी तरफ दौड़ता हुआ गया। संग्राम के करीब जाते ही उसकी आँखें खुली की खुली रह गयीं थीं। संग्राम ने भी उसका रिएक्शन देखकर अपनी भंवे सिकोड़ ली।

"जय हिन्द सर!" नवीन बोला तो सही लेकिन उसकी आँखें और ध्यान कहीं और था।

"जय हिन्द, पांडे। अच्छा लगा तुम यहां आए" बोलकर संग्राम ने उसका कंधा थपथपाते हुए हल्का सा मुस्कुराया।

"ये हार्ले डेविडसन है?!!!" नवीन उसकी मोटरबाइक को देखते हुए बोला।

"हाँ" अब जाकर संग्राम को समझ आया कि वो कब से उसका सारा ध्यान बस उसकी बाइक पर था। जवाब सुनकर नवीन चुपचाप खड़ा अपनी ड्रीम बाइक को देखता रहा।

"ये बहुत कूल है" बस यही शब्द निकले उसके मुंह से।

"तो ठीक है फिर आज से ये तुम्हारी"

"नहीं नहीं सर। ये आपकी है और जिसकी है उसी पर अच्छी लगती है" बोलकर वो उसके पीछे उसकी बाइक पर बैठ गया।

"मैंने तो सोचा था आपके पास रॉयल एनफील्ड है?" पीछे बैठे नवीन ने अचानक टिप्पणी दी। अभी तक उसके दिमाग में हार्ले डेविडसन ही चल रही थी। उसके अगर खुद के लिए सपने थे तो उनमें सबसे बड़ा यही बाइक खरीदने का था।

"वो भी है"

"दो दो"

"और भी हैं। बचपन से शौक रहा है"

"घोड़े, कुत्ते और बाइक्स। जानता हूं मैं" वो मुस्कुराने लगा तो संग्राम ने भी मुस्कुराते हुए बाइक स्टार्ट कर दी और उसे देखकर पूछा "चलें कमांडो?"

"नेकी और पूछ पूछ सर!" वो उसका दिया दूसरा हेलमेट पहनकर सेल्यूट करता हुआ हँसने लगा।

और इसी के साथ संग्राम की बाइक हवा से बातें करते हुए तेज़ी से आगे बढ़ गयी। नवीन पहली बार दिल्ली नहीं आया था वो अक्सर किसी कोर्स और काम के सिलसिले में आता रहता था लेकिन संग्राम से मिलने के बाद पहली बार था जो वो देश की राजधानी के दर्शन को गया था। इस बार अलग भी तो था। इस बार वो संग्राम के कहने पर उसके परिवार से मिलने और उनकी ख़ुशी में शामिल होने के लिए आया था ना कि काम निबटा कर जल्दी में वापिस जाने के लिए।

संग्राम की बाइक जैसे ही बंगले के गेट पर आयी वैसे ही तुरंत गेट पर खड़े दो चौकीदारों में से एक ने आकर गेट खोल दिया।

बाइक से उतरते हुए नवीन सर हेलमेट उतारता हुआ चारों ओर देख रहा था। बंगला बहुत खूबसूरत था और उसके चारों ओर फैला उसका बड़ा सा हरा भरा, रंग बिरंगे फूलों से सजा हुआ लॉन उसकी खूबसूरती में चार सौ चाँद लगा रहा था!

"आपका घर तो बहुत अच्छा...." अभी वो बोल ही पाया था कि घर के पीछे से भागते हुए चार बड़े बड़े कुत्ते संग्राम पर टूट पड़े।

"इनसे मिलो। कूपर, ड्यूक, मैवरिक और लिओ" संग्राम सबको हल्का थपथपाते हुए नवीन से बोला। नवीन भी उसके ही जैसे उन्हें थपथपाने लगा।

"बहुत फ़्रेंडली हैं सर!"

"सबके साथ नहीं। तुम शायद स्पेशल केस हो वरना ये किसी को हाथ भी नहीं लगाने देते ना खुद को और ना अपने सामने मुझ को" बोलकर संग्राम हंसने लगा।

"चलो अंदर चलते हैं। मॉम कब से इंतज़ार कर रहीं हैं तुम्हारा"

"मेरा इंतज़ार ?!!" नवीन ने हैरानी से पूछा।

"हम्म" बोलकर वो घर के अंदर जाने के लिए आगे बढ़ गया और नवीन अपने चेहरे पर हैरानी के भाव लिए उसके पीछे चल पड़ा।

"मॉम लुक हु इज़ हेयर..." संग्राम अंदर जाते ही बोला। उसके बोलते ही एक कोने के कमरे से जो शायद डाइनिंग हॉल था वहां से एक औरत बाहर निकली जो थी तो तकरीबन साठ बरस की लेकिन अपनी उम्र से दस बरस छोटी जान पड़ती थीं। माथे पर बड़ी लाल रंग की बिंदी, मोटी काली आँखों में गहरा काजल और सलीके से बंधी हुई शिफॉन की साड़ी। सादा सा हल्का फुल्का मेकअप और नपे तुले ज़ेवर लेकिन चेहरे पर तेज इतना कि सामने वाले की आँखें चुंधिया जाएं।

"नवीन, ये मेरी माँ, कावेरी यशवंत सिंह सांगेर" बोलकर संग्राम थोड़ा पीछे हट गया।

"नवीन!! बहुत सुना है तुम्हारे बारे में। इनफैक्ट हमारे संग्राम साहब इतनी जल्दी किसी के प्रभाव में आते नहीं है। मजाल है कि कोई उनके मुंह से अपना ज़िक्र करवा ले! जब से आपके बारे में सुना है तब से ही आपसे मिलने की तीव्र इच्छा थी और आज जाकर पूरी हुई!" वो मुस्कुराते हुए बोल रहीं थीं। नवीन को तो कुछ पल होश ही नहीं था। जब ज़रा स्थिति का एहसास हुआ तो उसने जल्दी से झुककर उनके पाँव छू लिए। उसने सोचा नहीं था कि इतने अपनेपन के साथ उसका स्वागत होगा।

"ख़ुश रहिए। आइये आपका स्वागत है"

फिर सामने ही उसे संग्राम के पिता दिख गए थे जो अपनी लेदर चेयर पर बैठे एक किताब पड़ रहे थे। उनकी नज़र जैसे ही सामने से आते नवीन और बाकी दो पर पड़ी तो उन्होंने किताब बंद कर उसे साथ रखे टेबल पर रख दिया।

"सर! थैंक यू फॉर योर सर्विस सर" नवीन ने अचानक ही सावधान मुद्रा धारण कर उन्हें सेल्यूट किया। संग्राम के पिता भारतीय सेना के रिटायर्ड मेजर जनरल थे और उनकी बहादुरी के किस्से सुनकर नवीन उनका फैन।

"थैंक यू फॉर योर सर्विस टू, लांस नायक नवीन कुमार पांडे!" उन्होंने भी जवाब में उसी की तरह सेल्यूट किया।

कावेरी जी और संग्राम दोनों को देखकर मुस्कुरा रहे थे।

डाइनिंग टेबल पर बैठकर उनके साथ डिनर करते हुए नवीन को एहसास हुआ था कि वो सब आपस में बहुत कम बात करते हैं और बिना आवाज़ के बहुत सलीके से खाना खाते हैं जबकि पांडे निवास में तो जब तक नवीन, नंदिनी को छेड़ ना ले और बदले में वो उस पर चिल्ला ना दे, खाना हज़म ही नहीं होता। उसकी माँ की टिप्पणीयाँ...उसके पिता का हर लड़ाई के बाद अपनी राजदूलारी बेटी का साथ देना.... खाना खाते हुए उन सबको इसी की आदत थी।

लेकिन सांगेर हॉउस में सब कुछ बहुत गंभीर था। वहां की दीवारें, रहन सहन, वहां के लोग। सब अनुशासित और नियमों से बंधे हुए।

"मैं खीर ले लूँ?" अचानक ही एक धीमी टूटती सी आवाज़ सबके कानों में पड़ी। वो आवाज़ नवीन की थी। उसने बत्तीसी दिखाते हुए ये सवाल पूछा था।

"हाँ हाँ क्यूँ नहीं बेटा, लो ना" कावेरी जी ने खुद उसे परोसा। पीछे से नौकर आगे बढ़ा था लेकिन उन्होंने उसे हाथ दिखाकर वहीँ रोक दिया था।

नवीन की ख़ुशी खीर देखते ही बढ़ती जा रही थी। मुंह में आएगी तो स्वर्ग ही होगा। दिखने में ही इतनी अच्छी लग रही थी।

"दरअसल मुझे बहुत पसंद है"

"हम्म। संग्राम ने बताया था। ख़ास तुम्हारे लिए ही बनवायी है" वो उसे खाते देख मुस्कुरा रहीं थीं। नवीन संग्राम को देखकर मुस्कुराने लगा। संग्राम चुप था।

"हमारे छोटे बेटे विक्रम को भी बहुत पसंद थी खीर" कावेरी जी की बात सुनकर नवीन खाते हुए रुक गया।

फिर उसने नज़रे उठाकर देखा उस माँ को जिसकी कोख इस देश की रक्षा में उजड़ चुकी! लेकिन उस माँ का दिल आज भी उस बच्चे के लिए धड़कता है और तड़पता भी है। वो देख पा रहा था कि विक्रम के ज़िक्र भर से कावेरी जी की आँखें भर आयी थीं।

वो उसी डाइनिंग टेबल पर संग्राम के साथ वाली खाली कुर्सी को निहारने लगी।

"वो हमेशा वहीँ बैठता था" बोलकर वो चुप हो गयीं।

उस खाली कुर्सी को देखकर नवीन को एहसास हो गया था कि कावेरी जी के लिए तो शायद उनका विक्रम आज भी ज़िंदा है और उन्हीं के बीच है। आखिर माँ थी। अपने दिल के टुकड़े को काटकर अलग करना कहाँ आसान होता है!

संग्राम और यशवंत जी चुपचाप खाना खाना रहे थे। उस दिन नवीन को उस परिवार का दर्द बहुत करीब से महसूस हुआ था और उसका दिल भारी हो गया था।

देश की आज़ादी की कीमत सस्ती कहाँ होती है। ये मांगती है त्याग और बलिदान, अपनों का!

खाने के बाद नवीन छत पर खड़ा था। कुछ देर बाद उसे अपने पीछे एक आहट सुनाई दी। देखा तो कावेरी जी पीछे खड़ी थीं।

"मे आई ज्वाइन यू?" वो मुस्कुराते हुए बोलीं।

"अरे! आइये ना मैम। आप क्यूँ इजाज़त मांग रहीं हैँ "

नीचे लॉन में संग्राम अपने चार कुत्तों के साथ था। दोनों छत पर खड़े उसे देख रहे थे।

"तुम्हारे संग्राम सर को कभी किसी लड़की का फ़ोन आता है?" अचानक कावेरी जी ने सवाल किया। यूनिट में नवीन, संग्राम के सबसे ज़्यादा करीब है.... ये बात वो बहुत अच्छे से जानती थीं।

"मैम मैं समझा नहीं"

"संग्राम की कोई गर्लफ्रेंड है? क्या लगता है?"

"पता नहीं" नवीन को समझ नहीं आ रहा था कि क्या बोले। सच बोले कि झूठ क्यूंकि कावेरी जी के हाव भाव देखकर लग रहा था कि संग्राम की ज़िन्दगी में कोई लड़की नहीं है, ये सुनना उनके लिए बहुत दुखदायी होगा।

"कोई तो होगी जो करीब होगी। कोई फेलो ऑफिसर? या किसी ऑफिसर की कोई रिश्तेदार जो पार्टी में मिली हो? या कोई और? सिविलियन?" वो जांच पड़ताल करने में लगीं थीं। ऐसे तो ना छोड़ने वाली थीं।

"नहीं मैम वही तो शिकायत है। ना तो सर खुद किसी लड़की को भाव देते हैं और ना ही किसी लड़की को हमें भाव देने देते हैं। इन्ही के चक्कर में हम सब सिंगल घूम रहे हैं बताओ"

नवीन का दर्द उबाल मार रहा था। आख़िरकार कोई मिला था उसे जिससे ये दर्द बाँटा जा सकता था।

"हो सकता है कोई ब्रेकअप हुआ हो?"

"नहीं मैम। दूर दूर तक तपता रेगिस्तान है। बारिश के कोई आसार नहीं है। मेरा मतलब कोई लड़की नहीं है संग्राम सर की ज़िन्दगी में"

उसकी बात सुनकर कावेरी जी एक गहरी सांस लेती हैं।

"पोते पोतियाँ खिलाने उम्र में इस बड़े से वीराने में अकेली बैठी हूं। जहाँ बच्चों की किलकारियां गूंजनी चाहिए वहां एक लड़की की हंसी की आवाज़ सुनने को भी कान तरसा दिए हैं मेरे बेटे ने। इनके पिताश्री को किताबें दे दो और इन्हें जानवर और हम सब त्याग कर हिमालय चलें जाते हैं, उसी के लायक बचे हैं हम! कावेरी जी का दर्द भी कहाँ छुपने वाला था।

उस बड़े से घर में अकेली ही थीं वो। विक्रम की मौत के बाद उनके पति बस किताबो तक ही सीमित थे और बेटे ने फ़ौज को ही अपना सब कुछ मान लिया था, कभी कभार फ़ोन पर बात हो जाती थी और चेहरा तो साल में एक आध बार ही दिखाता था।

हालांकि जब विक्रम था तब उनकी ज़िन्दगी अलग थी। तब वो सब से मिलती जुलती थीं लेकिन उसके जाने के बाद उन्होंने खुद को घर तक ही सीमित कर लिया था। कभी कभी किट्टी पार्टीज़ में जाती जहाँ उनके जैसी दिल्ली के मिलिट्री एलीट्स की पत्नियां ही होती।

"क्या लगता है संग्राम की ज़िन्दगी में किसी भी लड़की के आने के थोड़े से चांस भी हैँ?" वो उम्मीद की एक किरण चाहती थीं बस।

नवीन चुप ही रहा।

"सच बताना"

नवीन भोला सा चेहरा बनाये धीरे से ना में सर हिलाता है।

कावेरी जी उसका चेहरा देखकर ज़ोर से हंसने लगी। नवीन भी हंसने लगा। उनकी खिलखिलाती हुई हंसी सुनकर संग्राम का ध्यान भी छत पर चला गया।

आखिर उसकी माँ इतने सालों में पहली बार इतना खुल कर हँस रहीं थीं।

"सॉरी मैम"

"इतनी भोली शक्ल मैंने आजतक नहीं देखी और मैम नहीं...आंटी बोलो"

"लेकिन मैम..."

"आंटी ठीक है.... बहुत अच्छे बच्चे हो तुम" वो उसके सर पर हाथ रख मुस्कुराते हुए बोलीं। नवीन भी मुस्कुरा दिया।

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Suryaja

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Suryaja

I’m Suryaja, an Indian writer and a story teller who believes that words are more than ink on paper—they are echoes of dreams, fragments of the past, and shadows of what could be.