15

भाग - 14

फ़ोन नीचे गिरने की आवाज़ सुनकर नवीन के कान खड़े हो गए थे। वो अपनी कसरत छोड़कर उसकी तरफ भागा।

"क्या हुआ? किसका फ़ोन था? क्या हुआ कुछ बोल क्यूँ नहीं रही?" नवीन उसे ऐसे स्तब्ध खड़ा देखकर डर गया था। उसने ज़मीन पर पड़ा अपना फ़ोन उठाकर देखा। बच गया था बेचारा उसका फ़ोन हालांकि कॉल कट चुकी थी।

अचानक नंदिनी ने गुस्से के साथ अपना हाथ उसके कंधे पर मारा।

"अरे! आप मार क्यूँ रहीं हैं?" वो बचने की कोशिश करता हुआ बोला।

"तुमने बोला संतोष का फ़ोन है और मैं तुम्हारे संग्राम सर से संतोष समझ कर बात कर रही थी!!!"

"क्या बात कर रही हो दीदी?!" नवीन के हाथ से भी उसका फ़ोन छूट गया।

"तुम्हें डांट पड़ेगी क्या?" नंदिनी का गुस्सा उसकी प्रतिक्रिया देखकर थोड़ा शांत हो गया था। नवीन ने फिर ज़मीन पर धूल खा रहे अपने फ़ोन को उठा लिया।

"उनके मूड पर निर्भर करता है कि उनके गुस्से की बारिश होगी या बस बादल गरजेंगे। यार दीदी, देखना तो चाहिए था ना फ़ोन उठाने से पहले। मैंने तो बस अंदाज़ा लगाया था आपने सच में संतोष समझ लिया?" वो थोड़ी नाराज़गी दिखाता हुआ बोला।

उसने जल्दबाज़ी में संग्राम को फिर से फ़ोन मिलाया। उसका दिल तेज़ी से धड़क रहा था। संग्राम ऐसे ही उसे कम कॉल करता था और छुट्टी पर जब घर आ जाता था तब तो बिल्कुल भी नहीं तो क्या वजह होगी। वो सोच रहा था कि चार बार रिंग जाने की आवाज़ संग्राम ने फ़ोन उठा लिया।

उसके फ़ोन उठाते ही नवीन एकदम गंभीर मुद्रा में आ गया था।

"हेलो सर....सॉरी सर... अरे नहीं नहीं सर....यस सर.... जी सर....बिल्कुल सर....जी सर?!" बात करते हुए वो हैरानी से नंदिनी की तरफ देखने लगा जो वैसे ही सांस रोक कर खड़ी थी मानो आज संग्राम से उसके प्यारे भाई को पता नहीं कितनी डांट पड़ेगी।

"क्या हुआ?" नंदिनी ने फुसफुसाते हुए अपनी भौन्हे ऊपर नीचे करके उससे पूछा। उसे तो नवीन के "यस सर" और "जी सर" के अलावा ना तो कुछ सुनाई दे रहा था और ना ही समझ आ रहा था।

लेकिन नवीन के चेहरे पर आयी ख़ुशी को देखकर इतना तो साफ था कि उसे डांट नहीं पड़ रही।

"बिल्कुल सर.... जैसा आपका हुकुम सर.... जी सर.....जय हिन्द सर!" बात खत्म करके नवीन जैसे ही फ़ोन काटा तो इससे पहले कि नंदिनी उससे कुछ पूछती वो हवा में एक मुक्का मारता हुआ ज़ोर से उछल पड़ा।

"क्या हुआ?!" नंदिनी को कुछ समझ नहीं आ रहा था।

"मैं दिल्ली जा रहा हूं!" बोलता बोलता वो सीढीयां उतर गया। नंदिनी को उसकी पूरी बात सुनाई नहीं दी तो वो भी पीछे भागती हुई नीचे आ गयी।

नीचे नवीन ने सारा घर सर पर उठा लिया था। अपने माता पिता को सामने खड़ा कर उसने सारी कहानी कह सुनाई थी।

"संग्राम सर ने मुझे दिल्ली बुलाया है। मुझे कल सुबह ही निकलना है" वो बोला तो उसके पिता चिंतित हो गए।

"ऐसे अचानक? सब ठीक तो है ना बेटा?"

"हाँ सब ठीक है। दिल्ली में उनके घर पर उनकी माँ ने एक छोटी सी डिनर पार्टी की तैयारी की है, उन्हें सेना मेडल मिला ना इसकी ख़ुशी में। बस उसी पार्टी के लिए उन्होंने मुझे भी बुलाया है"

"तुम बस खाना खाने के लिए इतनी दूर दिल्ली जाओगे?!" नंदिनी हैरानी से बोली।

"अरे नहीं! सर बता रहे थे कि उनके माता पिता मुझसे मिलना चाहते हैं। आप सोच नहीं सकते कि मेरे लिए कितनी बड़ी बात है! संग्राम सर ने मेरे बारे में अपने घर में कभी कोई बात की होगी तभी तो उन्हें पता होगा ना मेरे बारे में?" नवीन का उत्साह आसमान छूता दिखाई दे रहा था।

"अच्छा तो फिर जाओ" नंदिनी धीरे से बोली।

"उनके पिता आर्मी के रिटायर्ड मेजर जनरल हैं। बहुत सुना हैं हमने उनके बहादुरी के कारनामो के बारे में। मेरी एक्साईटमेंट तो बढ़ती ही जा रही है। मैं उनसे जब मिलूंगा तो पता नहीं क्या कहूंगा"

"तुम उनके घर रहोगे क्या दिल्ली में?" नंदिनी ने फिर सवाल किया।

"हां"

"वो रहने देंगे?"

"अरे क्या बात कर रही हो दीदी? संग्राम सर ने खुद बुलाया है मुझे। वो ऐसे ही हर किसी से बात नहीं करते। और मैं कौन सा पूरी ज़िन्दगी उनके घर में बसने जा रहा हूं? एक दिन रुकूंगा और उसके अगले दिन संग्राम सर के साथ ही कश्मीर वापिस"

"तो मतलब हमारे हिस्से जो तुम्हारे कुछ दिन आए थे वो भी तुम किसी और के हवाले करोगे अब?" नंदिनी ने सवाल किया। उसे अच्छा नहीं लग रहा था कि वो छुट्टियों के बीच ही जा रहा था।

"नंदा जाने दे उसे। यही तो मौके होते हैं बेटा सीखने के... बिल्कुल जाओ तुम। तुम्हें बुलाया है तो तुम्हें ज़रूर जाना चाहिए" मोहन जी ख़ुशी के साथ बोले।

"हाँ मैं कौन सा रोक रहीं हूं लेकिन बाबा इतनी मुश्किल से तो छुट्टी मिलती है इसे। अब कितने महीनों बाद आएगा और पता नहीं छुट्टी मिलेगी भी या नहीं"

"अरे मिल जायेगी दीदी यार। उसकी चिंता मत करो लेकिन पहले ये बताओ अब तो यकीन हुआ ना कि संग्राम सर के लिए मैं भी उतना ही ख़ास हूं जितने वो मेरे लिए? बोलो बोलो?" नवीन को बस उसे छेड़ने का मौका मिल गया था।

नंदिनी चुप रही।

"बोल भी दो अब दीदी। मान रही हो ना जो हमारी सारी यूनिट मानती है?" नवीन के चेहरे पर शैतानी थी।

"हाँ ठीक हैँ भई मान गए बहुत प्यारे हो तुम अपने संग्राम सर के " नंदिनी हाथ जोड़कर उससे जान छुड़ाते हुए बोली। सब हंसने लगे।

शाम को नवीन घर के छत पर खड़ा चाय का प्याला लिए आसपास फैले खेतोँ को देख रहा था। वो छुट्टी खत्म होने पर जाने से एक दिन पहले यही करता था। ना जाने कभी दोबारा आने का मौका मिले या ना मिले.... ना जाने फिर कभी यहाँ की हवा में सांस लेने का मौका मिले ना मिले। एक फौजी की ज़िन्दगी ऐसी ही तो होती है। आज हैं तो क्या पता कल है भी कि नहीं!

तभी उसकी पीठ पर मोहन जी ने आकर हाथ रखा। उनके दूसरे हाथ में भी चाय का कप था।

"बाबा... आप"

"क्या सोच रहे हो यहाँ अकेले खड़े होकर?"

"कुछ ख़ास नहीं बस यही कि अगली बार जब आऊंगा ना तो घर के आगे एक छोटा सा लॉन भी तैयार करवाएंगे। अनाज के लिए कमरा छोटा है... और बड़ा करवाएंगे। और घर के आसपास की दीवारें भी थोड़ी ऊँची हो जाएं तो...."

"अरे करवा लेंगे सब करवा लेंगे" मोहन जी उसका कंधा थपथपाते हुए बोले। नवीन मुस्कुराते हुए चुप हो गया।

"आप एक बार फिर सोच लीजिये। कहीं हम दीदी की शादी के लिए जल्दबाज़ी तो नहीं कर रहे? मुझे तो उनकी दी हुई सफाई पर बिल्कुल भरोसा नहीं हुआ! मुझे नहीं लगता...."

"नवी! तुम अपना दिमाग़ इतना मत चलाओ। अरे उनका पूरा गाँव उनकी शराफत और सीधे सरल स्वभाव की मिसाले देता है। अब इतने सारे लोग झूठे तो नहीं हो सकते। मुझे पूरा भरोसा है जगजीवन जी पर"

अब अपने पिता के विश्वास के आगे वो कुछ बोल नहीं पाया।

"ठीक है आप जैसा बोलें। शादी का मुहूर्त निकलवाने के लिए बात की आपने उनसे?"

"हाँ, दो तीन दिन बाद वो आ रहे हैं मुहूर्त के सिलसिले में। तुम्हारे रहते ही वो काम भी निकल जाना था लेकिन अब तुम्हें ज़रूरी दिल्ली जाना है तो मुहूर्त निकलवा कर तुम्हें फ़ोन पर ही सूचना मिल पाएगी"

"हम्म" नवीन को सुनकर अच्छा तो नहीं लगा लेकिन क्या कर सकता था वो। जाना भी ज़रूरी था। संग्राम का दिल्ली आकर मिलने का आग्रह किसी हालत नहीं टाल सकता था वो।

रात को खाने पर खूब हंसी ठिठोली हुई पांडे निवास पर। उसके जल्दी जाने के बाद सब उदास हो जाएंगे ये सोचकर नवीन ने सबको खूब हँसाया।

सुबह तीन बजे उठकर नवीन ने जाने की सारी तैयारी कर ली थी। नंदिनी भी उसी की वजह से जल्दी उठ गयी थी और उसकी तैयारीयों में मदद कर रही थी।

"शहर के लिए पहली बस पकड़ोगे?" उसके लिए चाय टेबल पर रख नंदिनी ने पूछा।

"हाँ तभी तो समय पर फ्लाइट मिलेगी" वो चाय की एक चुस्की लेकर बोला और साथ ही साथ रानी देवी की सारी हिदायतें भी सुनता रहा जो वो हमेशा ही जाने से पहले उसे देती थीं। मसलन खाना वक़्त पर खाना, बुरी आदतों से दूर रहना, समय मिलने पर फ़ोन करते रहना इत्यादि इत्यादि।

नवीन उनकी हर हिदायत मुस्कुराते हुए सुनता रहा और हाँ में सर हिलाता रहा।

"अच्छा देर हो रही है। कहीं बस ना छूट जाए। चलता हूं अब मैं" घड़ी पर वक़्त देखकर नवीन बोला।

बाहर महेश भी अपनी बाइक से बार बार हॉर्न मार रहा था। नवीन को नारियापुर के बस स्टैंड पर वही छोड़ने जाता था।

"ये भी पहुँच गया। अच्छा चलता हूं अब मैं" अपनी माँ से कसकर गले मिलता हुआ नवीन बोला। फिर नंदिनी को भी कसकर गले लगाया उसने।

ऐसे मौकों पर उसकी माँ और उसकी बहन अक्सर ही भावुक हो जाती थीं और नवीन उन्हें आश्वासन देता कि वो अगली बार जल्दी वापिस आएगा और खूब सारी छुट्टियां लेकर आएगा।

"चलता हूं बाबा। ध्यान रखियेगा। और ये क्राइंग ब्यूटीज़ को भी संभाल लीजियेगा" हँसते हुए नवीन अपने पिता से गले मिलकर विदा लेने लगा और सबको संभालता हुआ नम आँखों से घर के गेट की तरफ बढ़ गया।

उस दिन जब नवीन बाइक की पिछली सीट पर बैठा, पीछे मुड़ते हुए घर के गेट पर खड़े अपने परिवार को मुस्कुराते हुए हाथ हिलाकर बाय बोल रहा था, उस दिन उसे अंदाज़ा भी नहीं था कि बस ये आखिरी बार था जब वो अपने परिवार को आँखों के सामने देख पा रहा था!

आखिरी बार! क्यूंकि उस दिन के बाद सब कुछ बदलने वाला था! सब कुछ!

Write a comment ...

Suryaja

Show your support

Let's go for more!

Recent Supporters

Write a comment ...

Suryaja

I’m Suryaja, an Indian writer and a story teller who believes that words are more than ink on paper—they are echoes of dreams, fragments of the past, and shadows of what could be.