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भाग - 10

"नवी...!!" वो हैरानी से उसे देखती हुई खड़ी हो गयी। नवीन ने हँसते हुए आगे बढ़कर डरी हुई नंदिनी के गले लग गया। नंदिनी अभी भी उसे अपने सामने देखकर मानो सदमे में थी। वो छुट्टी पर घर आने वाला था उसे तो अंदाज़ा भी नहीं था।

"ये सच में तुम हो?!!" वो अपना हाथ नवीन के हँसते हुए चेहरे पर फिराते हुए पूछा। नंदिनी को अब जाकर एहसास हुआ था कि वो सच में सामने था।

"दीदी यार!" वो अभी भी हँस ही रहा था।

नंदिनी भी उसे देखकर हंसने लगी और उसने हँसते हँसते उसके सर पर हल्के हाथों से चपत लगा दी। फिर रास्ते में दोनों, नवीन और महेश, नंदिनी का मज़ाक़ उड़ाते हुए ही घर की ओर बढ़ने लगे।

चोर क़दमों से घर के अंदर दाखिल होते नवीन के पीछे पीछे महेश और नंदिनी ने भी धीमे क़दमों से दरवाज़े के अंदर कदम रखे।

रानी देवी बरामदे में बैठी अनाज छांट रहीं थीं और किसी से बात कर रहीं थीं। नवीन ने अंदाज़ा लगाया कि ज़रूर अंदर बाबा बैठे होंगे।

"आज पूरा एक हफ्ता हो गया है जी, नवी का कोई फ़ोन नहीं आया" उनकी आवाज़ में चिंता थी।

"नंदा को आया होगा। उसे तो करता ही है" अंदर से आवाज़ आई।

"नहीं उसे भी कोई फ़ोन नहीं किया है उसने। पूछा था मैंने सुबह"

"कोई बात नहीं नेटवर्क नहीं होगा। यहाँ भी तो कम ही आता है। मैं शाम को कोशिश करूंगा"

"हुंह, अभी कर लो। शाम तो बहुत देर से होगी"

"आपके पति परमेश्वर बात नहीं करवा रहे तो मैं मदद करूँ आपके बेटे से आपकी बात करवाने में?" नवीन की आवाज़ उस सूने पड़े घर में गूंज उठी।

"नवी!!!!" रानी देवी ने दोनों हाथ हैरानी से अपने गालों पर रख लिए। उन्हें तो यकीन ही नहीं आ रहा था। बाहर से नवीन की आवाज़ सुनकर मोहन पांडे भी बरामदे में अपना अख़बार पकड़े आ गए। नवीन को अपने सामने देखकर उन्होंने ज़ोर से ठहाका लगाया। नवीन ने हँसते हुए अपने सामने हक्की बक्की खड़ी रानी देवी को गले से लगा लिया।

घर में हंसी ख़ुशी का माहौल बन गया था। महेश को भी खाने का बोलकर पांडे परिवार ने वहीँ रोक लिया था। घर में आए मेहमान की आवभगत के लिए ये परिवार सारे गाँव में जाना जाता था। सब खाने बैठे हुए थे।

"रुकोगे ना इस बार महीना?" नंदिनी ने उसकी थाली में एक ओर घी से लबालब रोटी डालते हुई पूछा।

"नहीं, बस हफ्ते की छुट्टी। आपकी शादी के लिए आऊंगा महीने भर की छुट्टी पर। इस बार बस मुहूर्त निकलवा कर वापिस चला जाऊंगा। वैसे जीजा जी से कब मिलवा रही हो?" नवीन आँख मारकर उसे छेड़ता हुआ बोला।

"मुझे क्या पता?!" नंदिनी उसे आँखें दिखाती हुई बोली।

"वो तुम अपने जीजा जी पूछो। इससे कुछ मत पूछो" रानी देवी नंदिनी को घूरती हुई नवीन से बोली।

"क्यूँ?!" नवीन के चेहरे पर हैरानी आ गयी थी।

"अरे उनसे खुद बात करेगी तो तुमसे बात करवाएगी ना। रिश्ता हुए दस दिन होने को आएं हैं लेकिन एक बार फ़ोन कान में लगाए बतियाते नहीं देखा इसे जमाई जी से। हम कोई दकियानुसी माँ बाप हों तो समझ भी आता है। पता नहीं कब खुद में ही सिमटना छोड़ेगी ये लड़की" रानी देवी अपनी शिकायत का पिटारा खोलकर बैठ गयीं थीं।

नंदिनी ने अपने पिता को उन्हें चुप करवाने का इशारा किया।

"क्या बात कर रही हों दीदी?!!! आपने एक बार भी बात नहीं की जीजा जी से अभी तक!" नवीन ने पूछा।

"अरे कर लेगी वो। तुम लोग तो पीछे ही पड़ गए हो मेरी बेचारी बेटी के" मोहन जी ने नंदिनी को इशारा किया। आखिर हमेशा से बेटी की तरफदारी की आदत जो थी उन्हें।

"है ना, बाबा? देखा आपने? बस हर वक़्त सब मिलकर मेरी टांग खींचते रहते हैं। मेरा जब मन होगा तब कर लूंगी बात लेकिन सब बस पीछे ही पड़ गए हैं एक ही बार में"

"नंदा बिटिया, ये तेरा सिमटना और लोगों से अपनी भावनाएं खुल कर व्यक्त ना कर पाना बहुत भारी पड़ेगा आगे जाकर। ससुराल वालों से घुलना मिलना भी पड़ता है बेटा और सबसे ज़्यादा अपने पतिदेव से। ऐसे में तेरा ये निराला ही अंतर्मुखी स्वभाव, इस जैसे स्वभाव से तो कोई विरला ही जुड़ पाता है। पता नहीं कैसे रहेगी ये ससुराल में अनजान लोगों के बीच" माँ के स्वर में चिंता साफ थी।

वो उसे समझा समझा कर थक चुकी थीं लेकिन नंदिनी को अपने दिल की बातें दूसरों के सामने करना और कहना कभी आया ही नहीं। बस दूसरों के लिए चुपचाप सब कुछ करने की आदी थी। बदले में उसे वही सब मिल रहा हैँ या नहीं उसने कभी ध्यान ही नहीं दिया। उसे परिवार ने बहुत इज़्ज़त और लाड प्यार से रखा था लेकिन सभी को चिंता थी कि आगे इस हद से ज़्यादा अंतर्मुखी लड़की का गुज़ारा कैसे होगा।

नंदिनी अब खीझ सी रही थी।

"अरे ससुराल वो जा रही है और कैसे रहना है वहां इसकी चिंता तुम्हें सता रही है। नंदा समझदार है। जब जहाँ जितनी ज़रूरत होती है उतना ही बोलती है और उसे अच्छे से पता है कब कहाँ क्या बोलना चाहिए। वो सब संभाल लेगी" पिता ने फिर तरफदारी कर दी थी। मोहन जी अपनी बेटी के खिलाफ कभी कुछ नहीं सुनते थे।

खाना खाते हुए नवीन सबको देखकर मुस्कुरा रहा था। कितना याद किया था उसने ये सब! ये नोक झोंक और हंसी ठिठोली।

"अच्छा आप लोग जानते हैं आज एक बहुत ही मज़े की बात हुई " खाना खाते हुए नवीन बोला तो सबका ध्यान उसकी तरफ चला गया।

"क्या?" माँ का सवाल था।

"हमारी होनहार टीचर दीदी सड़क पर एक दम ही मनमौजी अंदाज़ में चल रहीं थी" उसकी बात सुनते ही पास बैठे महेश की हंसी छूट गयी।

नंदिनी के चेहरे का रंग बदल गया। उसे एहसास हो गया था कि अब बात किस तरफ मुड़ने वाली थी।

"मेरा खाना हो गया बस अब मुझे बात ही नहीं करनी कोई" बोलकर वो तुनकते हुए रसोई में चली गयी।

"अरे भाई बात क्या है?" मोहन जी ने नंदिनी को जाते देखकर पूछा। नवीन ने देखा कि नंदिनी अभी भी रसोई की खिड़की के पास खड़ी बाहर देख रही थी।

अब नवीन कहाँ रुकने वाला था उसे छेड़ने से।

"तो हमारी टीचर दीदी खूब मौज में रास्ते पर चल रही थी तो मैने और महेश ने बस यूँ ही मज़ा लेने का सोचा। हम चिल्लाये - भागो बम फटने वाला है!!!!" वो दोनों एक साथ इतनी ज़ोर से चिल्लाये कि सामने बैठे रानी देवी और मोहन जी ने हाथ दिल पर रख लिया।

"अरे जान लोगे क्या?!" रानी देवी आँखें फाड़ उसे देखती हुई बोली।

"मुझे भी ऐसे ही डराया था इसने" नंदिनी रसोई के अंदर से बोली।

"और फिर टीचर दीदी ने पता है क्या किया?" वो उठकर दीवार के कोने में जाकर अपने कानों पर हाथ रखकर झुककर बैठ गया। किचन से नंदिनी "नवी!!!!" चिल्लाई।

लेकिन तब तक माहौल में हंसी ठहाके घुल चुके थे।

"अरे भई। अब वो ठहरी टीचर जी, तुम्हारी तरह फ़ौज में तो है नहीं जो बम का सुनकर सीना तान कर सामने खड़ी हो जायेगी" मोहन जी हँसते हुए बोले।

"अरे! फिर हम फौजियों को धमकियाँ क्यूँ देती है?"

"अच्छा किसे धमकियाँ दी इसने?" मोहन जी ने हैरानी से पूछा।

"तो फिर सुनो सुनो सुनो, पांडे निवास के सभी प्राणी ध्यान से सुनो" सब उसकी बात ध्यान से सुन रहे थे लेकिन सब हँस रहे थे।

"हमारी महान नंदिनी पांडे जी, जो बम का नाम सुनकर ही एकदम से दुबककर बैठ गई। आप जानते भी हैं किसे डांटने की धमकियाँ देती है? हमारे कम्पनी कमांडर द ग्रेट संग्राम सिंह सांगेर को! जिनके आगे बम और धमाके बस उड़ते हुए मच्छर हैं। फिर भी इतनी लम्बी लम्बी फेंकती है दीदी कि क्या बताऊं" नवीन हँसे जा रहा था और नंदिनी भूखी शेरनी की तरह उसे घूर रही थी। वो दनदनाती हुई रसोई से बाहर आई।

"ये वही है ना नवी, तुम्हारे बड़े साहब" मोहन जी बोले। इतने सालों में संग्राम का इतना गुणगान हो चुका था उस घर में कि सब जानते थे उसे।

"अरे। सिर्फ बड़े नहीं हैँ....रैंक और उम्र में बहुत सीनियर हैँ मुझसे और हमारी पूज्य दीदी किसी दिन ऐसा कंटाप पड़वाएगी ना मुझे उनसे कि बस मैं सीधा कश्मीर से नरियापुर पहुंचा दिया जाऊंगा"

"तुझे फेंकूगी आज मैं घर से बाहर। तू फ़ौज में ही अच्छा है। कम से कम इज़्ज़त से फ़ोन पर बात तो करता है। जैसा ही सामने आता है भूल ही जाता है कि बड़ी बहन से बात कर रहा है। बदतमीज़!" अपनी साड़ी का पल्लू कमर में ठूसते हुए वो झाडू लेकर उसपर सवार हो चुकी थी। संग्राम का नाम सुनकर वो वैसे ही भड़क जाती थी। नवीन तो सर पर पैर रखकर आगे दौड़ पड़ा।

अरे भई आराम से। गिर जाओगे दोनों। मोहन जी हँसते हुए बोले। लेकिन भाई बहन की लड़ाई किसी विश्व युद्ध से कम नहीं होती तो पूरे जोर शोर से जारी था दोनों का भागम भाग वाला झगड़ा।

पूरे घर में ख़ुशी और ठहाकों का माहौल फिर कायम था।

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I’m Suryaja, an Indian writer and a story teller who believes that words are more than ink on paper—they are echoes of dreams, fragments of the past, and shadows of what could be.